Friday 25 March 2016

यादों की पोटली से कुछ कहानिया

JK 20 P 420 , रियासी to कटरा to जम्मू भाग - 1




'भैया थोडा साइड होना'
आखिरी सीट पे बैठे हुए तीन दोस्तों में से एक से मैंने कहा
इतना कहते ही उसने  मेरी तरफ, इस तरह देखा
जैसे मानो ,मैंने उससे उसकी सीट नहीं बल्कि किडनी मांग ली हो
खैर, ये रिएक्शन देखने की,अब तो आदत सी हो गयी है
क्या करूँ मुसाफिर जो हूँ
हज़ारो किलोमीटर की यात्रा में,
सौइयो तरह के लोग मिलते हैं,
पचसियो से बात होती है,
20 अच्छी , 20 बुरी
10 ऐसी भी होती है जिनका कोई सर पैर नहीं होता पर होती जरूर है ।
क्योंकि इसका नाम सफ़र है ,
और सफ़र में suffer भी करना ही पडता है
कोई  ऐसे भी लोग मिलते है ,जो मिलते ही एक सवालो का बैग खोल देते है।
कहाँ से आ रहे हो?
कहाँ रहते हो क्यों रहते हो ???
क्या करते हो ??
ये क्यों नहीं करते ??
हजारो सवाल,
कभी कभी तो इतना पूछ लेते है की
अगर इतना कभी पढाई के लिए याद कीया होता तो शायद आई.ए.एस बन गए होते आज ।
और ये केवल बस  की बात नहीं है ,
आप ट्रेन में जाओ या मेट्रो ट्रेन  में ,
हर जगह हर समय ऐसा ही सब कुछ होता है ,
क्योंकि ये भारत है मेरे दोस्त,
और अब इन सब चीज़ों की इतनी आदत सी हो गयी है कि इनके बिना सफ़र असफल सा लगता है ।
खैर मैं भी भटका हुआ राही हूँ


शुरू हुआ था JK 20 P 0420 की बात से और पहुँच गया पूरे भारत की बात पर ।
तो कुछ यूँ हुआ
के जैसे ही मैंने अपनी तशरीफ़ बस की आखिरी सीट पे टिकाई,
बचपन के दिन याद आ गए ,
जब हम  पजल वाले गेम के टुकड़ो को जबरदस्ती जोड़ने की कोशिश करते थे और मैं वो ही पजल का टुकड़ा बन बैठा , जिसको जोड़ने की कोशिश बस कंडक्टर कर रहा था ।
बस में जैसे जैसे भीड़ बढ़ती रही, ऑक्सीजन की मात्रा घटती रही।
फिर कुछ देर में आगे वाली सीट पे बैठे एक अंकल ने एक तीख़ी सी आवाज़ निकाली ,
पर अफ़सोस की  वो आवाज़ उनके मुह से नहीं निकली थी ।
और चंद ही मिनटो में ज़ेहर पूरी बस में फैलता इतने में बस चल पढ़ी।
बस चली और हवा का आवागमन होने लगा
शाम का समय था और रास्ता पहाड़ी था,
एक पहाड़ से दुसरे पहाड़ , कभी पहाड़ बायीं तो कभी दायीं ओर,
पूरे रस्ते यही चलता रहा ,ठण्ड काफी थी ।


बस में हो रही चहल पहल से परे,आसमान में कोसो दूर जो नजारा था, वो मेरे बोझल मन को हल्का कर रहा था ।
एक तरफ तो विशालकाय सूरज पहाड़ो के पीछे धीरे धीरे आँखों से ओझल हो रहा था
और वही दूसरी ओर 'चाँद' सैकड़ो तारो के साथ उसके ओझल होने की घात लगाए बैठ था |
वो चाँद जो तारो से जगमगाते आस्मां में खूबसूरती से  पैठ कर रहा था
उसको देखते देखते मैं ना जाने किस  ख्वाब में खो गया और ख्वाब टूटा एक झटके के साथ।
सीट आखिरी थी पर झटके आखिरी नही
ना जाने इस पहाड़ी रस्ते में कितने झटके और बाकी थे ??
बस ड्राईवर ने जोर से ब्रेक मारी और आधी सवारियां अपनी सीट से थोडा इधर उधर हो गयी
तभी एक दुसरे चाँद की झलक दिखाई दी
ये चाँद मुझसे कोसो नहीं बल्कि कदमो दूर था
बस रुकी और एक पहाड़ी लड़की ने बस में प्रवेश किआ
उसकी सुंदरता को देख सबकी आँखों के तारे टिमटिमाने लगे ।
उसके चेहरे पे मदहोश कर देने वाली एक अद्भुत चमक थी ।
जैसे पौं फटने के समय आस्मां में होती है।
ऐसी अनोखी सुंदरता जिसको बयान करने में अच्छे अच्छे लेखक भी निशब्द हो जाए,
और उस चेहरे की झलक से ही सफर का suffer होना खत्म हो गया |
बस में बहुत भीड़ थी और उस भीड़ में भी कुछ आशिक़ मिजाज़ लोगो ने उस लड़की को अपनी  सीट देने की मंशा जताई ।
पर उसे भी सीट पे बैठना गवारा ना हुआ और अशिक़ो की कोशिश नाकाम रही ।
वो कुछ देर तक खड़ी रही और मैं भी टुकटुकि लगाये उसे चुपके से निहारता रहा
बस में अँधेरा था , पर फिर मेरी आँखें उसके हुस्न के दीदार में जुटी हुई थी ।
फिर बस कुछ दूर चल के रुकी , एक बसस्टॉप आया था ।
आधी बस खाली हो गयी और वो लड़की एक खिड़की वाली सीट पे जाके बैठ गयी ।
मैं भी उस निरंतर झटके देने वाली आखिरी सीट से उठा और उसके साथ  जाकर बैठ गया ।
इरादा नेक था और मन में भी ख्याल एक था
के काश इस लडकी से रूबरू होने का मौका मिल सके इस पहाड़ी सफ़र में
मैंने उसे मन ही मन, मानो उसे अपनी किस्मत में लिखा जीवन भर तक साथ देने वाला एक लेख मान लिया हो
वही लेख जो हर किसी की किस्मत में लिखा होता है।
उस से बात करने की मन को बहुत लालसा थी ,
तभी मैंने धीमी सी आवाज़ में उससे कहा....


कहानी में आगे क्या हुआ , जानने के लिए यहाँ दबाए

Tuesday 22 March 2016

आखिर क्या चाहता है ये मन ???

आखिर क्या चाहता है ये मन ???
के उन मायूस चेहरो पे मुस्कान के दो फूल खिल सके
जो वंचित थे ज्ञान और अज्ञान के बीच अंतर से ।
आखिर उनके कोमल हाथो में , कलम की जगह मेहेज 10 रुपए में बिकने वाला कमल क्यों है ???
कोई अपने हाथ में कपडा लेके गन्दी गाडियो के शीशे साफ़ कर रहा है,
कोई हाथ में भारत का झंडा , कोई सफ़ेद फूलों से निर्मित सुंगधित गजरे ,
तो कोई कागज़ के टीसु पेपर बेच रहा है ,
क्या इस  टिशू वाले कागज़ की बजाए वो कोपि किताब वाले कागज़ों से रूबरू होने का हक़ नहीं इन नन्हे बचपन के व्यापारियो को ??


ये व्यापार नहीं करते, ये तो जीवन व्यापन के लिए इधर से उधर अपने बचपन को कोड़ियो के भाव बेच रहे है
इनके साहस और निश्चय का कोई माप नहीं है
मैनेजमेंट के  विद्यार्थी भी इतनी अच्छी मार्केटिंग नहीं कर सकते क्योंकि वो इतने सक्षम नहीं होते जो रोज रोज की नामंजूरी के बाद समाज में अपना  कदम रख पाए ।
धैर्य चाहिए होता है , हज़ारो लोगो के सामने रोज अपने सामान को बेचने में
वो भी तब , जब हज़ारो में से कुछ चंद ही इनका सामान खरीद के वो अतुलनीय मुस्कान की झलक पाते है
बारिश हो , कड़ी धूप या कड़ाके की ठण्ड कोई भी ऐसी चीज़ नही जो इनके हौसले को कुछ षण के लिए भी पस्त कर दे



पर सवाल ये है की  क्या इनका ये  नन्हा बचपन इसी जद्दोजेहद में बीत जाएगा ???
आखिर क्या चाहता है ये मन
क्या कुछ हो सकता है ?
क्या कुछ किया जा सकता है ?
एक सवाल अपने मन से
आखिर क्या चाहता है ये मन???

Monday 21 March 2016

General डब्बे में की गयी सबसे रोचक यात्रा

19 मार्च 2016 समय 10:35 AM
आज फिर एक बार हालातो से हताश होके चल पढ़ा हूँ एक ऐसे सफ़र पे जो पता नहीं कब खत्म होगा ??
हुआ यूँ के अचानक से अपने पैतृक घर जाने का मन हुआ ,वो भी होली से 5 दिन पहले ।
बढ़ी मशक्कत से एक ट्रेन पता लगी जो चंडीगढ़ से अलीगढ जाती थी उसके बाद उसमें आरक्षण की अर्जी डाली तो पता चला के ट्रेन में सभी डब्बे भरे हुए थे ।
और अंततः मैंने एक घनिष्ट को (जो की भारतीय रेल में अफसर के पद पर कार्यरत है) विशिष्ट आरक्षण की गुहार लगाई ।
पर दुर्भाग्यवश उनकी अर्जी भी मेरी बदनसीबी के आगे घुटने टेक गयी और आरक्षण नहीं मिला ।
ट्रेन रात 1:10 की थी और 9 बजे जब मैं अपने पूरे जोश से सारा सामान pack करके बेफिक्र मस्ती में घूम रहा था तब रेल गाडी में सीट ना मिलने का समाचार आया ।
अब क्या किआ जाए ? अब तो बस सोया ही जा सकता था ।
तो रात इस दुःख में ही बीत गयी के पैतृक घर नहीं जाना हो पाया ।
पूरी रात ना तो सुकून से नींद ही आई और ना ही ख्वाब देखे गए , करीब 3 मर्तबा एक जैसे ही ख्वाब से आँख खुली कि मैं ट्रेन में हूँ और ट्रेन स्टेशन पर रुकी है कभी पानीपत , कभी पुरानी दिल्ली, तो कभी अलीगढ , पूरी रात यही सभ होता रहा ,शरीर सोता रहा पर मन रोता रहा ।
पहली बार चंडीगढ़ से पैतृक घर जाने का ख्वाब जो मेरे नन्हे से मन में हिलोरे ले रहा था , वो टूट गया था।
तो वो कसक जो मन में थी , उसके साथ ही सुबह 8:30 पे आँख खुली और अपनी दिनचर्या को पूर्ण करते ही ,मैंने 8:50 पे अपना स्कूटर लेके स्टेशन की ओर अपने कदम बड़ा लिए ।
पता चला के एक ट्रेन अम्बाला से अलीगढ 12 बजे जाएगी ।
और अब उसी ट्रेन के General डब्बे में जाने का संकल्प लिए क्योंकि त्यौहार की भीड़ ने आरक्षित डब्बो को इस तरह भर दिया था जैसे
उससे पूर्व एक ट्रेन चंडीगढ़ से अम्बाला भी जाती थी उससे अम्बाला पहुँचने का भी गुज़ारा हो गया ,
लेकिन रास्ते में आने वाली अड़चनों का किसे पता था ??
12 बीजे अम्बाला से अलीगढ
और उससे पूर्व 10:20 पे चंडीगढ़ से अम्बाला की एक ट्रेन, जो कि अपने निर्धारित समय से पूरे 20 मिनट लेट आई और 11 बजे चंडीगढ़ से चली ।
Ab poore raste yahi कशमकश मन को घेरे रही कि मैं अम्बाला से अगली ट्रेन पकड़ पाऊंगा या नहीं |
कुल सफ़र कुछ 450 km का था , पता नहीं कब मैं घर पहुंचूंगा इसी वजह से मैंने यात्रा के वृतान्त को लिखना शुरू किआ , इससे एक तो मेरा मन लगा रहेगा और आप लोगो से मेरी गाव जाने की रोचक यात्रा को साँझा करने का माध्यम बनेगा ।

भारतीय रेल में सफ़र करने का भी अपना अलग ही मज़ा है ,
कभी आप ये प्राथना करते हो के ट्रेन समय पे पहुंचा दे जैसे मैं कर रहा हूँ इस ट्रेन के लिए ,
तो कभी ये आशा करते हो के ट्रेन late हो जाए , जो मैं ही कर रहा हूँ अगली ट्रेन के लिए ,क्योंकि इस ट्रेन ने तो अम्बाला से पहले ही करीब 3-4 जगह दम तोड़ दिया बाकी ट्रेनों को pass देने के लिए ।
दोपहर 12 बजे
और अब आशावादी मन के साथ मैं अम्बाला पहुंचा जो केवल चंडीगढ़ से 50 किलोमीटर दूर है ।
ट्रेन से उतारते ही मैं पूरे वेग से पूछताछ केंद्र की ओर भागा और पता किया अगली ट्रेन के बारे में जो की खुद 30 मिनट लेट थी ।
उस लेट train की खबर सुनते ही मेरी सांस में सांस आई ,
platfrom पूछा , मुँह धोया , शरीर का ईंधन लिया और निकल पढ़ा Platform के लिए ।
Platफॉर्म no. 6 पे एक बहुत बड़ा जमवाड़ा लगा हुआ था इतने लोग, इतने चेहरे , ना जाने कितने चेहरे, किसी चेहरे पे मिटटी की परत थी ,तो कोई Nivea की क्रीम लगाये Shatabdi का इंतज़ार कर रहा था , कोई सर में कपड़ो की गठड़ी लेकर दौड़ रहा था , तो कोई America tourister का wheel वाला बैग लेकर खड़ा था ।
कुली, चाये चाये , ब्रेड पकोड़े , रेलवे anouncment की आवाज़ों से परे, कुछ चिड़िया स्टेशन के शैड पे चहक रही थी ।
पंजाबी, हरयाणवी , बंगाली , बिहारी , डोगरी , राजस्थानी और ना जाने कितनी कितनी भाषा बोलने वाले लोगो का समूह उस छोटे से प्लेटफार्म पे था ।
क्योंकि होली के त्यौहार की दस्तक तो थी ही , साथ में 5 छुट्टियां भी एक साथ ही आई थी

भारत की बढ़ती जनसँख्या का अनुमान आप तब तक नहीं लगा सकते ,जब तक आपने भारतीय रेल के General के डब्बे में सफ़र ना किआ हो

,
हां आपने सही पहचाना
मैं ट्रेन के General डब्बे में घुस चूका हूँ
यहाँ कभी कोई TT टिकट चेक करने नहीं आता
क्योंकि ये एक जोखिम भरा काम है ,
बाकी 3 reservation वाले डब्बो में जितने लोग बैठ के जाते है उससे कई ज्यादा लोग तो इसमें खड़े रहते है ।
3 लोगो की बैठने वाली सीट पे करीब आधे दर्जन से भी अधिक लोग अपनी तशरीफ़ टिकाये बैठे है ।
मैे पहले एक डब्बे में गया जिसमे अमृतसर से आते हुए लोगो ने अपनी 'seat छीन लेने वाली जंग' का परचम लहराया हुआ था , पूछने पे पता चला की सब दिल्ली उतरेंगे ।
फिर कुछ 50 मिनट बाद जब अगला स्टेशन आया तो अगले डब्बे से सैकड़ो लोग उतरे ,
मैं कूदता फांदता उस डब्बे में ज्यों ही पहुंचा ,के एक हरयाणवी ताऊ ने बीड़ी सुलगा ली ,
उससे आगे बैठे दो नौजवान अपनी बेरोजगारी के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे थे
उनसे भी आगे निकलना ही मैंने ठीक समझा और एक बूढे बाबा की सीट के पास जाके खड़ा हो गया
ट्रेन चलने का horn बजा और जितने लोग उतरे थे उससे ठाई गुना ज्यादा और लोग ट्रेन में चढ़ गए ,
धक्का मुक्की के बीच मैं जैसे ही आधा कदम आगे हुआ , तो साथ में आराम फरमाते ताऊ की आँख खुल गयी और ताऊ बोलेया "इब के करके मानेगा छोरे" ???
और फिर उसी जगह 2 घंटे खड़े रहने पे , साथ बैठे एक Uncle जी को मुझे पे दया आ गयी और वो लघुशंका करने गए, तो मुझे अपनी सीट पे बिठा गए पहले मुझे लगा के मेरी थकी हुई 'भोली' शकल देख उन्होंने सोचा होगा की ये मेरी सीट की रखवाली कर लेगा ।
परंतू वो सच में दयावान थे जो लघुशंका करने के 20 मिनट बाद तक भी वही खड़े रहे और मेरे आग्रह करने पर भी अपनी सीट वापिस नहीं ली ।
फिर एक station आया और कुछ और सवारिया उतरी तो मुझे Uncle जी की सीट वापस करने का मौका मिल गया ।
और वो ट्रेन जो की 40 मिनट लेट चल रही थी ,
वो अब हवा से बातें करने लगी
धीरे धीरे स्टेशन पर ट्रेन का विलंभ भी कम हो गया ,
जो नन्हे मासूम बच्चे अपनी माँ की गोद में बैठे पहले रो रहे थे वो सभी अब सो रहे थे ।
ट्रेन के दोनों तरफ हरे भरे गेहूं के खेत ,बिजली के Tower , और उन खेतो में बड़े बड़े घर दिखाई देते,
कुछ इंजीनियर बनाने की फैक्टरियां भी सड़क के साथ ट्रेन का पीछा कर रही थी।
और अब यहाँ ट्रेन में भारत का सबसे बड़ा टाइम पास पत्ते (प्लेइंग कार्डस्) चल पढ़े है ।
ट्रेन में बैठे सभी लोगो के मन में अपनी मंज़िल पे पहुँचने की उत्सुकता निरंतर बड़ रही थी
और कुछ युवको का समूह जो अमृतसर से आ रहा था , बार बार एक ही सवाल पूछ रहा था , भाई दिल्ली कितनी दूर है ??
और सोनीपत पहुँचते ही मैंने उन्हें जवाब दिया
"अब दिल्ली दूर नहीं"
पर जाना तो अलीगढ है और अलीगढ से 'बबराला'
बबराला : ये मेरे पैतृक गाव का नाम है जो वास्तव में एक क़स्बा है ,जिसके पूरब में 3 किलोमीटर दूर गंगा माँ बहती है और आस पास हरे भरे खेत है , थोडा दूर इट के ऊँचे ऊँचे भट्टे है जो हरी भरी धरती को लाल करके बैठे है , और कुछ 2-3 शुगर मिल भी है जो सोंधी सोंधी गुड़ की खुशबू को पूरे वायुमंडल में फैलाती रहती है , और हाँ tata chemicals का एक यूरिया प्लांट है जो 5 किलोमीटर लंबा और 5 किलोमीटर चौड़ा है जिसमें काम करने वाले लोग बबराला से ही अपनी छोटी बड़ी जरूरते पूरी करते है ।
कुल मिला के बबराला की आबादी 25-30 हज़ार के आसपास है और उसी बबराला नमक कसबे में मेरा एक छोटा सा पैतृक घर है जिसमें दादा दादी जी अपने बाकी नाती पोतो के साथ रहते है ।
इस सफ़र की ख़ास बात ये भी है की मेंरे अलावा ये किसी को जानकारी नहीं की मैं इतनी लंबी दूरी तै करके अपनों से मिलने जा रहा हूँ इस उत्सुकता ने ही तो सफ़र की शारीरिक थकान को मेरे मानसिकता पे हावी नही होने दिया।
ठीक 3 :30 बजे ट्रेन दिल्ली पहुंची और पंजाब से आती अधिकतम सवारियो की मानो यही मंज़िल हो
और अब मुझे खिड़की की सीट मिल गयी ,
फिर मैंने अपना इंधन ( fruit केक) बैग से निकाला और खाने लगा
ट्रेन कटियार (बिहार) को जा रही थी तो सबसे ज्यादा General की सवारिया मजदूरी के पेशे से थी,
साथ में थे प्यारे प्यारे, मोठे गालो वाले बच्चे जिनके आँखों का काजल सबसे सुन्दर लग रहा था ,
रंगबिरंगे नए कपड़ो में बच्चों को देख कर पता लग रहा था के कितनी मेहनत से इन बच्चों को ये कपडे नसीब हुए है ।
आज आप हमारे पूरे देश के किसी भी कोने में चले जाओ , तो आपको ये मेहनतगर्द लोग मिलेंगे जिनका इस देश के विकास में ,बहुत बड़ा योगदान है।
तो मैं केक खा रहा था ,भूक भी बहुत लगी थी और एक बच्ची अपने पिता के साथ मेरे सामने आके बैठ गयी , मेरे पास इतना Cake तो था नहीं जो मैं सब में बांट सकूँ ।
लेकिन मैंने जैसे ही उसकी तरफ एक केक का टुकड़ा बढ़ाया तो उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी
फिर बहुत आग्रह करने पे उसके पिता ने जब बोला तो, उसने एक टुकड़ा मेरे से ले लिया ,
और तो वो पूनम की चाँद के जैसी इस तरह से खिलखिलाई मानो मेरी सारी भूक उस्सी षण समाप्त हो गयी ।
कुछ देर शांति तक बनी रही , जब तक ट्रेन स्टेशन पे खड़ी थी
उसके बाद कुछ उज्जड गवार (so called educated) अलीगढ की सवारिया चढ़ि और उन्होंने भोले भाले मजदूर सवारियो से seat मांगी ,
काफी देर तक वो गवार मेरे सामने बैठे व्यक्ति से सीट मांगता रहा और बोलता रहा के भइये ऊपर बैठ जा एक घंटे के लिये, फिर हम चले जानगे
और जा सीट ए तोए ही देके जांगे ।
लेकिन अंत में उसने तप्पड़ और घूंसे से जबरन seat हड़प ली ।
उस समय खुद को बहुत बेबस जाना ,
वो ग्वार लड़ाकू आदमी अपने पूरे office के कर्मचारियो के साथ भोले भाले मेहनती मजदूर से भिड़ गया और ये इन गवारों का रोज का काम है ।
ये Northern Railways को अपने बाप की जागीर समझते है । जबकि ये बिहार वाली सवारियो को होली दीवाली घर जाना नसीब होता है
आज ये खून फिर खौला और कुछ ना कर पाने पे अपने ऊपर धिक्कार भी महसूस हो रहा है ।
लिखने अलावा मुझे कोई दूसरा विकल्प भी दिखाई नहीं दे रहा
इसलिए बस लिख के ये तसल्ली मना रहा हूँ के कोई पढ़े तो जरूर आवाज़ उठाएगा ।
4:20पे साहिबाबाद आया और मेरे फोन में 4%बैटरी शेष होने के कारण मैंने अपने लिखने को थोडा विराम दिया
ट्रेन का दिल्ली से अलीगढ तक केवल एक stoppage था खुर्जा जंक्शन पे
लेकिन ट्रेन कुल 7 छोटे बड़े halt और stations पे रूकती 7:40 पर अलीगढ पहुँची ।
अब यहाँ से बबराला जाने की एक ही passenger गाडी बची थी जो की 8 बजे चल के 11 बजे बबराला पहुंचाती थी
तो मैंने रात को अपनी बुआजी के घर रुकना उचित समझा
रात को अलीगढ स्टेशन पे कदम रखते ही बचपन की याद आ गयी जब बबराला से दिल्ली(via अलीगढ) ट्रेन से जाते थे क्योंकि ट्रेन का सफ़र किफायती, तेज़ और सुरक्षित हुआ करता था ।
किफ़ायत की मामले में तो आज भी भारतीय रेल ने सभी यातयात के साधनो को मात दी हुई है
मात्र 130 रुपए में 391 Km चंडीगढ़ से अलीगढ ।
फिर 8 बजे बुआ जी के घर पहुँच के यात्रा का वृतांत सबके साथ साँझा किया ।

अगले दिन 20 मार्च को अलीगढ़ से बबराला की ट्रेन के लिए जब बुआजी के घर से रवाना हुआ तो आधुनिकता का एक अनोखा उदहारण सड़को पे दिखाई दिया
बूढ़े कमजोर रिक्शाचालको और जंग से झर झर हुए रिक्शों की जगह अब E Rikshaw ने ले ली थी जिनके नौजवान चालक हृष्ट पुष्ठ थे
सड़क के दोनों तरफ जो फलों के ठेले थे उनपे अब लालटेन की जगह LED lights लगी थी जिनकी बैटरी को चार्ज करने के लिए छोटे छोटे solar पैनल लगे हुए थे ,
और तो और कई चौराहो पे सोलर Red Light भी लग लगी थी ।
लेकिन जो ना बदला था ,वो था लोगो का रवैय्या , एक दुसरे से आगे निकलने की होड़ , दोपहिया वाहनों पे हेलमेट का प्रयोग ना करनेवाले समझदार लोग , सड़क किनारे कूड़ा फ़ेंक के नालिया जाम करते समझदार लोग , आपाधापी में सड़क कानूनों को रौंदते समझदार लोग।
इन समझदारो के बीच से निकल के जब मैं रेलवे स्टेशन पे पहुंचा तो देखा के करीब 100 मीटर लंबी लोगो की लाइन एक छोटी सी खिड़की के पास जाके खत्म हो रही थी
पूछने पे पता लगा के ये टिकट काउंटर है और बस हो गया सारा होंसला पस्त ।
अब फिर एक बार Bus की याद आई
तभी भीड़ के बीच में से एक भले मानुस प्रगट हुए और उन्होंने बताया के स्टेशन के सामने वाली संकरी गली में महज एक रुपए के कमीशन से ट्रेन की टिकेट उपलब्ध हो जाएगी।
वहा कोई लंबी कतार न थी , मैंने टिकट ली और चढ़ गया लंबी सी Local passenger ट्रेन में ।
51 KM के सफ़र में ट्रेन फिर कुछ 6 -7 स्टेशन पर रूकती हुई 2 घण्टे के भीतर मुझे मेरे गंतव्य स्थान पे उतार के बरेली को रवाना हुई।
और कुछ इस तरह से मैं अपने पैतृक घर पहुँच गया ......