Monday 4 July 2016

मणिमहेश यात्रा भाग-2 (भोले की नगरी में)

अब तक की यात्रा पढ़ने के लिए क्लिक करें
सुबह 10:50 पर इन्दपुर से जसूर की बस ली, बस का चलना शुरू हुआ और साथ में पहाड़ी रास्ते की शुरुआत भी हो गयी। छोटे छोटे रेतीले पहाड़ कुछ घास , कुछ मिट्टी , तो कुछ पेड़ों से ढके हुए।
अभी ठीक से पहाड़ तो नहीं आये थे लेकिन खड़ी चढ़ाई से हिमाचल में  प्रवेश करने का एहसास होने लगा था। जिला काँगड़ा के अनन्य स्थानों से होते हुए हम जसूर पहुंचे और फिर वहां से द्रमण के लिए बस पकड़ी ।
जसूर में खड़े  पर्यटनप्रेमी 
द्रमण भी जिला काँगड़ा में आता है, जिला काँगड़ा आबादी के अनुसार हिमाचल का सबसे बड़ा जिला माना जाता है।
द्रमण वो स्थान था जहाँ से चम्बा जिले की सीमा शुरू होते थी, एक रास्ता मण्डी से आता , दूसरा नुपुर काँगड़ा से और तीसरा रास्ता चम्बा को जाता है। 
चम्बा को जाने वाला रास्ता 

चम्बा जाने वाले रास्ते पर गाड़ियों की संख्या कुछ ज्यादा ही थी ,
चम्बा, खजियार और डलहौज़ी जैसे बहुत सारे आकर्षण के केंद्र है चम्बा जिले में जो हिमाचल पर्यटन का एक अहम हिस्सा हैं। 
5 मिनट 10  मिनट 15 मिनट 20  मिनट करते करते पूरे 45  मिनट तक तरुण भाई का इंतज़ार तो किया गया लेकिन उन 45  मिनट में भी हम पूर्णतः व्यस्त ही रहे, 
चम्बा की ओर जाते हर एक गाडी वाले ने (जो दुसरे राज्य से आ रहा था) हमसे एक ही सवाल पुछा - भाई क्या ये रास्ता चम्बा को ही जाता है?
रास्ता पता होने के बावजूद भी सभी का एक जैसा सवाल शायद इसलिए था क्योंकि पहाड़ी रास्तों में गलती की गुंजाइश कम ही होती है। 
बहुत अच्छा महसूस हो रहा था मुझे और अमनदीप को क्योंकि जिस रस्ते पर कभी गए नहीं उसकी जानकारी बाकी अनजान लोगों को दे रहे थे हम।

खैर कुछ समय बाद श्रीमती और श्री तरुण जी ने हमे गाड़ी में बिठाया और चल दिए हम चम्बा के लिए। 
खूबसूरत प्रकृति  के दर्शन शुरू होने लगे थे और कुदरत का करिश्मा देखिये की गाडी में बैठते ही चम्बा के दैवी क्षेत्र में वर्षा ने हमारा स्वागत किया।
चढ़ाई कुछ और बढ़ने लगी , मौसम साफ़ होने लगा और कुछ मिट्टी के खोखले पहाड़(anthill) दिखने लगे जैसा हॉलीवुड की मूवीज में देखा है।
उन चिंटीपहाड़ों(anthill) से ऊपर थे कुछ खूबसूरत बादल।
चींटी पहाड़

जब अभी से इतना मज़ा आ रहा है तो आगे क्या नज़ारा होगा???😇
मेरी आँखें प्रकृति को बखूबी निहार रही थी , तभी कुछ दूर एक दो जलाशय दिखाई दिए, जिनके ऊपर सफ़ेद घनघोर बादल मंडरा रहे थे ।
तरुण भाई ने बताया के ये अलग अलग डैम है ,बहुत दूर नज़रो से मुश्किल ही दीखता पोंग डैम था ।
तभी कुछ दूर चलने पर सड़क के साथ नीचे एक नदी आ रही थी जिसपे एक बहुत पास डैम दिखाई दिया -चौड़ा डैम चमेरा 1 के नाम से लोग उसे संबोधित करते थे ।
चौड़े डैम के पास 2-4 सेल्फी ली और फिर सीधा बावा जी के घर जाके रुके।
हम 5 


चमेरा 1 चौड़ा डैम 


बावा जी - एक अद्भुत शख्सियत है, तरुण भाई के कॉलेज के साथी जो की चम्बा के एन.एच.पी.सी के प्रोजेक्ट में अपनी धर्मपत्नी के साथ कार्यरत है ।
बावा जी उर्फ़ आदित्य भारद्वाज जी के जैसे स्वभाव वाला व्यक्ति शायद कभी नहीं मिला मुझे पिछले 23 साल में।
साधारण जीवनशैली, उच्च विचार और आतिथ्य भाव ऐसा की हॉस्पिटलटी के विद्यार्थियों को इनसे शिक्षा दिलानी चाहिए।
पूरे दिन अपने ऑफिस में बिजली बनाने के बाद थके हुए बावा जी ने हमारा लिए स्वादिष्ट भोजन बना कर रखा था।
पूरे गर्मजोशी से स्वागत हुआ , भोजन किया और फिर बावा जी ने हमें चम्बे के चौगान का दर्शन कराया।
चौगान माने एक बड़ा समतल मैदान जहा पर अनन्य खेलकूद और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते है , एक तरफ तो तेज बहती रावी नदी थी वही दूसरी ओर ऊँचे ऊँचे चम्बा के पहाड़, वादियों का पूरा एहसास अब हो रहा था।
चौगान के साथ जाते रोड पर हुई कई सारी फिल्मो की शूटिंग का जिक्र भी किया था बावा भाई ने।
रात हुई, सो गए, बहुत बढ़िया नींद आयी, आती भी क्यों नहीं बावाभाई ने हमें अपने बैड पर सुलाया और खुद जमीन पर गद्दा बिछा कर सोये।
ऐसे व्यक्ति को सरकार द्वारा आतिथ्यभाव के लिए पद्मविभूषण मिलना चाहिए।


तीसरा और सबसे अहम पढ़ाव-
अगले दिन सुबह जल्दी ही नहा धोके और चाय की चुस्की भर के बावा भाई के घर से भरमौर के लिए निकले हम लोग।
आज भरमौर (जो की 68 किलोमीटर दूर है चम्बा से) से आगे चढ़ाई शुरू करनी थी।
भरमौर को जाते रास्ते में एक तरफ से तेज़ हिलोरे लेती रावी नदी थी और दूसरी ओर तीखा कटा हुआ पहाड़ी रास्ता ।
इतना संकरा रास्ता था की 2 गाडी एक साथ पास भी मुश्किल से ही ले पा रही थी और तो और जब कभी यहाँ बारिश पड़ती है तो भूस्खलन(landslide)  का खतरा बना ही रहता है। हलकी हलकी मेघा तो थी लेकिन ईश्वर की कृपा भी थी और हम सीधा भरमौर के होटल भरमौर व्यू में जाके रुके ।
होटल भरमौर व्यू - एक और ऐसी जगह थी जहाँ मेहमान नवाज़ी का पूरा आनंद मिला-नितिन भाई और उनके बड़े भाई डॉ०अतुल सर (कहानी के अगले भाग के किरदार)द्वारा।
होटल भरमौर व्यू में नाश्ता करके हम लोग हडसर के लिए टैक्सी से करीब 11 बजे निकले ।
दैवी यात्रा का रास्ता 
और 11:45 बजे हमारी यात्रा का शुभ आरम्भ हुआ।
तरुण भाई नें केवल दो ही अनुदेश दिए ।
1. सभी अपनी अपनी गति से चलेंगे।
2.हर 1 किलोमीटर बाद रुक के साथी यात्रिओ के साथ मिलन करेंगे ।
ये दो बातें कहते हुए सौरभ को ये भी कहा के तू अपनी गति से चलना।
बस फिर शिव शंकर का नाम लेके यात्रा शुरू करी ।
4-5  मिनट सौरभ ने चलते चलते मुल्तानी मिट्टी का लेप अपने हाथ और मुह पर मला और फिर उसने भागना सागरु कर दिया।
हाँ जी पहाड़ी चडाई में इस तरह से भाग रहा था जैसे हिरन जंगल में मणि की तलाश में इधर उधर भागता हो।
आज सौरभ को उसकी मणि की तलाश थी।
दैवी यात्रा का शुभ आरम्भ 

मैं और अमन जो की नौसिखिये थे, धीरे धीरे तेज होने लगे और भोले बाबा के दम्पति हमारे पीछे आने लगे।
शुरू में पहले हम उच्चाई से नीचे उतरे और फिर एक विशाल नदी के साथ साथ चलते रहे ।
ऊपर बहुत ऊपर पहाड़ो पर मंडराते सफ़ेद बादल और नीचे नदी में चलता शीतल जल दोनों बहुत मनमोहक लग रहे थे ।
अंदाजे से 1 किलोमीटर बाद हम दोनों (मैं और चौधरी) रुके और तरुण भाई का इंतज़ार किया।
रास्ता बहुत लंबा था और शरीर में गर्मी बनाये रखने के लिए हमने फिर अगले बढ़ना ही ठीक समझा और 5 मिनट प्रतीक्षा के बाद फिर मंज़िल की ओर बढ़ चले।



पहले बादल थे फिर घनी धूप और चलने से आयी गर्मी से पूरी शर्ट पसीने में लत पत हो गयी थी।
मेरी सांस चढ़ने लगी थी और अमन मुझसे थोडा सा दूर उच्चाई पर चलता दिख रहा था ।
अमन के आगे चलने से मेरा हौंसला बना रहा और हमने 3 किलोमीटर की दूरी हँसते खेलते , फोटो खींचते, खिंचाते तय कर ली।
फिर एक सुन्दर सा पुल दिखाई देने लगा , पहले हम लोग नदी के दायीं ओर थे और अब हमें पुल पार करके नदी के बायीं ओर चलना था।
पुल तो क्या ही मानिए लोहे का गर्डर था जोकि दो पत्थरों पर टिका हुआ था उसके साथ ही एक आगे लकड़ी का पतला सा पुल था जिसके बीच से पानी तेज़ी से बहता जा रहा था
जितना वो पुल सुन्दर लग रहा था उतना ही वो खतरनाक भी था।
 

उस पुल से आते हुए 2 यात्रिओ से रास्ता पूछने पर पता चला की धन्छो अब पास ही था। उन्होंने कहा हमे तो 15-20 मिनट लगते है तो आप भी 30 मिनट में पहुँच ही जाओगे।
दोनों बंधू पहाड़ी थे तो उनका ऐसा कहना निंदनीय प्रतीत नहीं हुआ ।
धन्छो से पीछे पुल पर हम दोनों मित्रों ने एक दूसरे के खूब फोटु खींचे।

और फिर पुल से ऊपर बढ़ने लगे लगे तो पीछे एक अत्यंत खूबसूरत पहाड़ी दिखने लगी जो पहले बादलो से ढकी थी
बाराकंडा की पहाड़ी थी वो 5800मीटर ऊँची वर्फ से ढकी,बादलों  से घिरी जो आगे जाके पीर पंजाल की पर्वत श्रृंखला से जाके मिलती थी । अंग्रेजी में लोग इसे Barakanda Snowcone भी कहते है ।
पतला पुल और बादलों में छिपा बाराकन्डा  

उस पहाड़ी से सामने बाराकंडा की पहाड़ी धन्छो पहुँचने तक बरा बर दिखती रही ।
धन्छो पहुंचे मैं और चौधरी तो ये पता चला की 2 घंटे में तकरीबन 5 किलोमीटर की दूरी तय कर ली है।

खुद की इस उपलब्धि पर ज्यादा प्रसन्न ना होते हुए ये सोचा की सुन्दरासी में रात रुकी जाए ।
रणनीति बनाने के लिए तरुण भाई और भाभी जी आ गए थे, लेकिन सौरभ का कुछ आता पता नहीं था ।
एक दुकानदार से पता चला की वो 1 घंटे पूर्व ही धन्छो पार कर चूका है वो भी भागते हुए ।
अब मन में घबराहट होने लगी थी क्योंकि धन्छो से दो रस्ते अलग होते थे 
एक सुन्दरासी होते हुए जहा हमने रात को रुकना था और
दूसरा रास्ता जो बिना रुके सीधा कैलाश को जाता था, उस दुसरे रास्ते की हालत अधिकतर खस्ता ही रहती थी और अकेले उस रास्ते का चुनाव किसी मुसीबत को मोल लेने से कम नहीं था।
कहीं सौरभ ने वो दूसरा रास्ता ना चुन लिया हो ???
कहाँ है सौरभ???
क्या वो हमें सुन्दरासी मिलेगा???
ये सब बातें जानने के लिए पढियेगा मेरा अगला ब्लॉग।