Tuesday 10 May 2016

पहली साइकिल यात्रा - श्री आनंदपुर साहिब


जनवरी का महीना पूरे उत्तर भारत में शरद ऋतू का दूत कहलाता है।  ठण्ड इतनी ज्यादा होती है की घूमना फिरना तो दूर ,व्यक्ति  अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी घर से बाहर निकलना पसंद नहीं करता , लेकिन मेरी  मानो तो साइकिल चलाने  के लिए ,इससे अच्छा कोई और समय नहीं हो सकता।  यही सब सोचते हुए 15 जनवरी को साइकिल खरीद ली और 18 से कॉलेज भी खुल गए थे , अब तो तरुण भाई भी घर से वापस लौट चुके थे।  कुछ 4 - 5 दिन सुबह 10 -15 किलोमीटर  साथ में साइकिल चलाने के बाद विचार आया की, कहीं लम्बी यात्रा हो जाए तो हम लोगों  का साइकिल खरीदना सफल हो जाएगा और सौरभ जी, जो की एक दिन में  253 किलोमीटर साइकिल चला चुके थे , उनका साथ तो था ही।  तरुण जी के मन में पंजाब और चंडीगढ़ के आस पास के उन इलाको को घूमने की बड़ी लालसा दिखाई देती थी - जो सिख इतिहास के पन्नो के अहम पृष्ठ है। उन्ही में से एक स्थान है श्री आनंदपुर साहिब। 

श्री आनंदपुर साहिब - एक ऐसी पावन  धरा जिसकी  नींव दसवें गुरु श्री गुरुगोबिंद सिंह जी ने रखी थी,
यही वो पवित्र स्थान है जहाँ दशमेश पिता ने पंज प्यारों का बलिदान स्वीकार  कर खालसा पंथ की  स्थापना करी थी इसलिए इसे तख़्त श्री केशगढ़ साहिब नाम दिया गया। वैसे तो आनंदपुर साहिब की स्थापना 1665 में नौवें गुरु श्री तेग बहदुर जी द्वारा की गयी और उन्होंने अपनी माता के नाम पर इसका नाम दिया - "चक नानकी ", लेकिन बाद में दशमेश पिता श्री गुरुगोबिंद सिंह जी  ने  25 वर्ष आनंदपुर साहिब में बिताते हुए यहाँ आस पास अनन्य किलों का निर्माण किया जो सक्षम थे मुग़लों को मुंह तोड़ जवाब देने के लिए। इन्ही सब बातों को जानने के लिए आनंदपुर साहिब जाने का मन बनाया। 

22 जनवरी , शुक्रवार का दिन तय हुआ, सुबह कॉलेज में लेक्चर अटेंड किये और दोपहर 1 बजे हम हॉस्टल से चल दिए , करीब 5  किलोमीटर बाद पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज पहुंचे और वहा  से सौरभ जी को साथ लेते हुए निकल पढ़े आनंदपुर सहिब के लिये।
3 दोस्त 3 साइकिल और एक मंज़िल - साईकल पर जीवन का  पहला ट्रिप था और मुझे ठीक से दूरी का भी नहीं पता था, बस चलते गये ,चलते गए। पहले चंडीगढ़ में और अब कुराली के लिए।  
चंडीगढ़ कुराली रोड था तो 4 लेन हाईवे,  लेकिन तेज़ी से चलती हुई गाड़िया , ट्रैक्टर ,बुग्गियां हमें सतर्कता से चलने का संदेश बार बार दे रही थी। 
करीब 1 घंटा साइकिल चलाने के बाद हम कुराली-चंडीगढ़ रोड पर ठीक उसी जगह रुके जहां से हमारा (मेरा और सौरभ का) पिछला कॉलेज कुछ ही किलोमीटर दूर था.

गुड कारखाना 
सौरभ जी कैमरे का और मैं गुड का लुफ्त लेते हुए 

रुकने का कारण था 'गरम गुड' 
इस रोड पर अनेकों गुड़ बनाने के कारखाने थे , एक पर हम रुके ,गुड़ खाया और फिर रोपड की तरफ़ चल दिए,
2:30 बजने पर जब गुड़  खा कर चले तो कुछ स्थानीय स्कूली बच्चों से रेस लगाई , कुछ दूर तक तो खूब तेज़ चलाई पर अंत में बच्चों ने हरा दिया , बच्चों में बहुत ताकत होती है और हम पिछले 25  किलोमीटर से साइकिल भी तो चला रहे थे, बातों बातों में कुराली पहुँच गए। 
30  किलोमीटर साइकिल चलाने के बाद थकान का एहसास होने लगा था, धूप तो थी ही लेकिन सर्दियों वाली। 
टी-शर्ट पसीने से लत पत , मुंह पे मिटटी की परत , पैरो में मीठा मीठा दर्द और कुछ साथ में  चलते लोग,
कोई साइकिल पर , कोई  स्कूटर, कोई बस , कोई गाडी तो कोई बैल गाडी में , सभी प्रकार के लोग मिलते और आगे निकल जाते। कोई देख कर हस देता, तो कोई हस कर देखता, लोगों के निरन्तर मिलते सकारातमक भावों से आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती रही  , लेकिन शरीर तो जवाब देने लगा था।

3:45बजे करीब 50 किलोमीटर साइकिल चलाने के बाद , एक जगह रुके और कीनो जूस पिया , ताज़गी का एहसास कुछ ही किलोमीटर तक साथ रहा, फिर सोचा की सौरभ की रेसिंग साइकिल से सफर पूरा कर लिया जाए।
मेरे पहले ही आग्रह पर सौरभ जी मना न कर पाये और मुझे अपनी साइकिल दे दी।
हीरो हॉक - जिसकी सख्त और ऊँची गद्दी थी , उस पर सवार हो कुछ 5 - 7 किलोमीटर का सफर और तय कर लिया, सौरभ जी की वो साइकिल थी तो झर झर हालत में लेकिन चलती बहुत तेज थी  है , उस गंजे टायर वाली  हीरो हॉक की टेस्टिंग का वो पहला सफर था ।
अब दिन ढलने को था , मैं अपनी साइकिल पर वापस आया और तरुण जी के साथ चलने लगा। दोनों का यह पहला साइकिल सफर था , दोनों एक दूसरे की ओर मुस्कुरा कर देखते और मन ही मन कहते - यार ये क्या पंगा लिया ? लेकिन एक दूसरे का हौंसला कम ना हो, इसलिए नकारात्मक भावो को मन में ही समेट लेते और जुबान पर आती वो हसी जो अंतरमन से वर्तलाप कर जाती।
तरुण भाई ने पूरे रास्ते मेरा ढाँढस बढ़ाने के लिए, जगह जगह बहुत से चित्र अपने फ़ोन में कैद किये।

 भकरा से आती हुई एक प्रमुख नहर 

एन.एच. 21  पर घनौली के पास 

डूबते सूरज को सलाम 
करीब 6 बजे के आस पास सूरज भी विदाई दे गया , लेकिन हम लोग अपनी साइकिल पर पर्याप्त रौशनी करने वाले उपकरण लगा कर चले थे।
चंडीगढ़ से आनंदपुर साहिब के बीच सैकड़ो फ्लाईओवरो ने टांग की नसों को जाम सा कर दिया था और पैरो में निरन्तर बढ़ता दर्द मुझे ये कहने पे मजबूर कर गया की, रात किरतपुर में ही बिताई जाये। मेरे फैसले को मंजूरी देते हुए  , दोनों साथिओ ने मुझे आगे बढ़ने को कहा।
मैं फिर तेजी से चल पड़ा, यह सोच कर की अब कीरतपुर तो 10 किलोमीटर ही शेष बचा है , 
लेकिन मेरे आगे चलने से पीछे रहे दो साथियो की रणनीति से मैं अवगत ना था। उन्होंने  कुछ  बात करी और सौरभ जी आगे निकल गए , पीछे पीछे मैं और तरुण जी रेस जैसी लगाते हुए कीरतपुर पहुँचे , जहाँ पर विचारों का मत भेद हुआ
और 3 में से 2 लोगो ने यह फैसला किया की रुकेंगे तो आनंदपुर।
अब मैं अकेला तो कीरतपुर  रुक नहीं सकता था, इसलिए भारी मन से यह फैसला लिया की सौरभ जी की साइकिल पर अब आनंदपुर जाकर ही रुकुंगा।
आगे बढ़ते हुए द्वारिका प्रसाद महेश्वरी जी वो पंक्तिया याद कर ली जो बचपन में नंबरों की दौड़ में भागने के लिए रटी थी 
                                                  वीर तुम बढे चलो ,    धीर तुम बढे चलो
                                                   प्रात हो कि रात हो,   संग हो न साथ हो,
                                                   सूर्य से बढ़े चलो,       चन्द्र से बढ़े चलो ,
                                                   वीर तुम बढ़े चलो      धीर तुम बढ़े चलो। 

और इसी तरह करीब 7:30 हम श्री  आनंदपुर साहिब पहुँच गए लेकिन अब मुझे मेरे साथियो के द्वारा लिए गए फैसले पर अफ़सोस ना था,क्योंकि अगले दिन 10 किलोमीटर दूर आनंदपुर का आना जाना 20 किलोमीटर में बदल जाता 
साइकिल स्टैंड  पर लगा कर , धर्मशाला में सामान रख कर , श्री गुरुद्वारा के दर्शन किये , भोजन किया और सो गए। नींद बहुत अच्छी आई। 


अगले दिन वपसी करने से पूर्व हम  विरासत-ए-खालसा के लिए रवाना हो गए। 'विरासत-ए-खालसा' नाम से ही  पता लगता है की कोई ऐसा स्थान होगा जहां खालसा पंथ की विरसता छिपी हो। श्री गुरुद्वारा साहिब से कुछ ही मील दूर एक अद्भुत स्थान जिसे एक बार घूम लेने से सिख गुरुओ द्वारा समाज के लिए किये गए बलिदानो का एहसास हो जाता है। देखने में इतना सुन्दर की पूरे पंजाब  में अजूबे के नाम से प्रसिद्ध है। 

म्यूजियम में एंट्री का रास्ता 

म्यूजियम की छत से तालाब का नजारा 

वापस की तयारी 

चलो चलें वापस 
वापसी के लिए तैयार तो थे हम लेकिन तरुण भाई के घुटने में दर्द हो रहा था।  गौर से देखा तो पता चला की उनके बांये पैर का घुटना सूज गया था , अब ऐसे में 90 किलोमीटर साइकिल पर वापसी करना उचित ना था इसलिए मैं और तरुण जी बस से चंडीगढ़ वापस आये और हमारी साइकिलें  बस की छत पर।
लेकिन गौर करने वाली बात ये है की हमे बस से  वापसी करने में जहाँ 2:45 लगे वहीं सौरभ जी ने 90 किलोमीटर की दूरी को 3 घण्टे 50 मिनट में तय कर ली।

पहली साइकिल यात्रा से दो एहम सीख मिली
1. लम्बे सफर में साइकिल चलाते वक़्त फ्लाईओवर का कम से कम प्रयोग किया जाए ,
2. सफ़र कितना ही लम्बा क्यों ना हो , पर पिछवाड़ा साइकिल की गद्दी पर टिका रहना चाहिए क्युक खड़े होकर     साइकिल  से  घुटनो में दर्द के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता।

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