चलो कहीं और घूम कर आते है , लेकिन इस बार कहीं आस पास चलेंगे - मैंने तरुण जी से नाश्ता करने के बाद कहा।
सुबह के साढ़े 8 बज रहे थे , और बातों बातों में मोरनी जाने का मन बना लिया।
अभी आनंदपुर से आये हुए ठीक से 3 दिन भी नहीं हुई थे , शरीर में कहीं कहीं थोड़ा दर्द भी था लेकिन दिल पक्का था। क्योंकि वो 'बस के द्वारा' की गई वापसी किसी नाकामी से कम भी तो नहीं लग रही थी।
शरीर को मज़बूत बनाने के लिए दिल को पहले ही मजबूत कर लिया था, जिससे कभी बस से आने पर मजबूर ना होना पड़े। जब गए साइकिल से थे तो आएंगे भी वापस साइकिल से। आपको ये सब बातें समझने में दिक्कत हो रही होगी क्योंकि आपने शायद श्री आनंदपुर साहिब यात्रा न पढ़ी हो।
फ़ोन में मोरनी का सबसे छोटे रस्ते वाला मैप डाउनलोड किया , दाना पानी लिया और 10 बजे हम दोनों साथी अपनी अपनी साइकलों पर मोरनी के लिए चल दिए। सेक्टर 26 , चण्डीगढ़ से पंचकूला से होते हुए , हिमालयन एक्सप्रेसवे पर पहुँचते - पहुँचते शरीर थोड़ा बहुत खुल गया था तो हमने गति तेज कर ली।
खुला हुआ चौड़ा रास्ता , तेजी से हिमाचल की ओर अग्रसर होते वाहन अधिक समय तक हमारा साथ नहीं दे पाये, और हमें एक्सप्रेसवे से मोरनी के लिए मुड़ना पढ़ा।
पहले कुछ दूर तक भगवानपुर नामक एक छोटा सा गॉंव साथ चला।
फिर सड़क के दोनों तरफ़ बड़े बड़े क्रेसर दिखाई देने लगे , क्रेसर और ट्रकों को जल्द ही पीछे छोड़ते हुए हम एक ऐसे रास्ते पर पहुँच गए जिसपर गाडिओं और बाकी वाहनों का आवागमन काफी कम था।
एक तरफ छोटे छोटे पहाड़ , तो दूसरी ओर एक दरिया में पतली सी पानी की धार दिखाई दे रही थी,वास्तव में वो दरिया भू खनन से प्रभावित जमीन का कुछ हिस्सा था।
उस सूखे दरीया से कुछ दूर पहाड़ दिखने लगे थे और सर्दियों के सूरज ने हमे ऊपर से घेर लिया था।
करीब 3-4 किलोमीटर तक ये मनमोहक खुला रास्ता साथ रहा फिर एक छोटा सा गाँव आया और वह से पतला रास्ता शुरू हो गया।
अब दोनों तरफ हरी भरी फसल से लहराते खेत थे और बहुत मामूली सी चढाई शुरू हो गई थी। थकान का एहसास शरीर को होने लगा था तभी हमे दोनों साथी एक घर के पास रुके, पानी लिया और 10 मिनट विश्राम किया।
घर के मालिक से बातचीत हुई और पता चला की मोरनी अभी भी 17 -18 किलोमीटर दूर है , उन्होंने कहा यहाँ से 25-30 मिनट लगेंगे क्योंकि उन्हें ये जानकारी नहीं थी हम तो साईकल से जा रहे है।
फिर कुछ दूर चले तो दो अलग अलग रास्ते दिखाई दिए। एक सरल सा रास्ता था जो नीचे दरिया से होते हुए हलकी हलकी पहाड़ियों में जाके मिल रहा था और दूसरा रास्ता आगे से मुड़ रहा था जो ठीक से दिखाई भी नहीं दे रहा था। मोड़ पर रुके तो एक आदमी मिला जिससे पुछा- भैया मोरनी के लिए कौनसा रास्ता जायेगा ?
इतना कहते ही उसने हमें ऐसे देखा मानो किसी और देश से आये हो। वो हँसा और बोला की इस मोड़ से मुड़ जाओ।
उसकी हँसी को दिल पर न लेते हुई मैंने शरीर पर ले लिया,साइकिल के पैडल में सारा जोर फूंकना शुरू कर दिया और तेजी से मोड़ से मुढ़ गए , कड़ी चढ़ाई की शुरुवात हो गई।
गियर 6 से उतर कर सीधा 1 पर जाके रुका क्योंकि कुछ ही मिनट में सड़क इतनी खड़ी हो गई की पहला गियर भी ऐसा लग रहा था मानो किसी ने 100 किलो वजन पीठ पर लाद कर साइकिल का छठा गियर दाल दिया हो।
सौ सवा सौ मीटर तक साइकिल चलाई फिर उतर कर हाथ से खींचनी शुरू कर दी।
मैं आगे था और तरुण भाई पीछे से साइकिल पर आते हुए मुझ पर हँसे , लेकिन उनकी हँसी भी पचास मीटर की ही मेहमान थी उसके बाद वो भी उतर गए और हम साथ साथ चलने लगे।
गाते गुनगुनाते कुछ 300 मीटर चले और फिर चढ़ाई कुछ कम हो गई , फिर साइकिल पर बैठ गए लेकिन वो साइकिल का सुख फिर 1 -1.5 किलोमीटर तक ही था , फिर उतरे और विश्राम किया। उन पलो को कमरे में कैद किया।
आस पास कुछ और लोग जो उस रास्ते से मोरनी जा रहे थे उन्हें भी ऐसा लग रहा था की हम किसी और देश से हैं और अब उस रास्ता बताने वाले पहले आदमी की हँसी बखूबी समझ आ रही थी , बिलकुल वैसी ही हंसी हमारे चेहरों पर एक दूसरे को देख कर आ रही थी।
"जब ओखली में सर दे दिया तो मूसल से की डरना"-बस एक इसी भाव के साथ साइकिल और पैदल चलने की मिश्रित प्रक्रिया चालू रही।
फिर चढ़ाई , फिर साइकिल से उतरकर पैदल चलना , फिर साइकिल पर चढ़ना और फिर कुछ दूर तक पैडल मारकर साइकिल को खींचना। ऐसा करते करते हम फिर एक मोड़ पर पहुंचे जहां से एक रास्ता मोरनी को जाता था और दूसरा पिंजौर को ,वह कुछ दुकाने थी जिनसे मैगी और चाये का सेवन किया और पता चला की अभी भी मोरनी 9 किलोमीटर आगे है।
दोपहर के 1 बजे रहे थे और मैंने मन बना लिया की 2:00 तक मोरनी पहुँच के रहेंगे। रास्ते में शरीर ने तो जवाब नहीं दिया लेकिन 1:45 पर मन जवाब दे गया और मोरनी से 6 किलोमीटर पीछे पीछे से ही वापस लौटने का मन बना लिया।
दोनों साथी सर्व सहमति से 6 किलोमीटर पीछे से ही वापस लौट गए।
अब वो रास्ता जो कांटो की तरह पैरों में चुब रहा था वो फूलों की तरह कोमल और सुन्दर लगने लगा।
जिस चढाई वाली दूरी को हमने 2.5 घंटे में पूरा किया वो 20 मिनट में तय कर ली , साइकिल हवा से बातें करने लगी , उत्तराई इतनी तीखी थी की ब्रेक लगाने पर भी साइकिल रुक नहीं रही थी , वापसी में कोई दुःख का एहसास ना था और कुल 1.5 घण्टे जैसे तैसे करके हम हॉस्टल वापस आ गए और ले आये वो यादें जो अतुलनीय थी।
प्रकृति की गोद में बैठने का एहसास कराया मोरनी क अधूरे सफर ने। जीवन में बहुत बार हम मन चाही वस्तुओं को हांसिल नहीं कर पाते , लेकिन उनके पीछे किये गए परिश्रम से बहुत कुछ सीखने को मिलता है,
मोरनी का अधूरा सफर भी उन्ही में से एक सफर बन के रह गया जो अधूरा होने पर भी खूबसूरत और अद्भुत था ।
इन्ही सब बातो को एक दिन अपने तीसरे साथी सौरभ जी से साँझा किया , उनका झट से जवाब आया - फिर से चलें क्या ??
मैंने कहा महाराज हाथ जुड़वाँ लो।
लेकिन वो मानने वालो में से कहाँ है ? लोहे की टाँगे और हीरे का दिल है , हीरा इसलिए क्योंकि वो सबसे स्ट्रांग कार्बन पदार्थ है।
अकेले चल दिए मोरनी।
आखिर मोरनी में है क्या ?
वह क्यों जाना ?
इन सब बातो को जानने के लिए पढ़िए मेरे साइकिल गुरु सौरभ जी का ब्लॉग ?
चंडीगढ़ से मोरनी हिल्स (टिक्कर ताल) यात्रा
जल्द ही आऊंगा चप्पर चिड़ी की साइकिल यात्रा और चप्पर चिड़ी के एतिहासिक महत्त्व के साथ।
नमस्कार ।।
सुबह के साढ़े 8 बज रहे थे , और बातों बातों में मोरनी जाने का मन बना लिया।
अभी आनंदपुर से आये हुए ठीक से 3 दिन भी नहीं हुई थे , शरीर में कहीं कहीं थोड़ा दर्द भी था लेकिन दिल पक्का था। क्योंकि वो 'बस के द्वारा' की गई वापसी किसी नाकामी से कम भी तो नहीं लग रही थी।
शरीर को मज़बूत बनाने के लिए दिल को पहले ही मजबूत कर लिया था, जिससे कभी बस से आने पर मजबूर ना होना पड़े। जब गए साइकिल से थे तो आएंगे भी वापस साइकिल से। आपको ये सब बातें समझने में दिक्कत हो रही होगी क्योंकि आपने शायद श्री आनंदपुर साहिब यात्रा न पढ़ी हो।
फ़ोन में मोरनी का सबसे छोटे रस्ते वाला मैप डाउनलोड किया , दाना पानी लिया और 10 बजे हम दोनों साथी अपनी अपनी साइकलों पर मोरनी के लिए चल दिए। सेक्टर 26 , चण्डीगढ़ से पंचकूला से होते हुए , हिमालयन एक्सप्रेसवे पर पहुँचते - पहुँचते शरीर थोड़ा बहुत खुल गया था तो हमने गति तेज कर ली।
खुला हुआ चौड़ा रास्ता , तेजी से हिमाचल की ओर अग्रसर होते वाहन अधिक समय तक हमारा साथ नहीं दे पाये, और हमें एक्सप्रेसवे से मोरनी के लिए मुड़ना पढ़ा।
पहले कुछ दूर तक भगवानपुर नामक एक छोटा सा गॉंव साथ चला।
फिर सड़क के दोनों तरफ़ बड़े बड़े क्रेसर दिखाई देने लगे , क्रेसर और ट्रकों को जल्द ही पीछे छोड़ते हुए हम एक ऐसे रास्ते पर पहुँच गए जिसपर गाडिओं और बाकी वाहनों का आवागमन काफी कम था।
रास्ते का पहला पुल |
खुला मनमोहक रास्ता |
उस सूखे दरीया से कुछ दूर पहाड़ दिखने लगे थे और सर्दियों के सूरज ने हमे ऊपर से घेर लिया था।
करीब 3-4 किलोमीटर तक ये मनमोहक खुला रास्ता साथ रहा फिर एक छोटा सा गाँव आया और वह से पतला रास्ता शुरू हो गया।
अब दोनों तरफ हरी भरी फसल से लहराते खेत थे और बहुत मामूली सी चढाई शुरू हो गई थी। थकान का एहसास शरीर को होने लगा था तभी हमे दोनों साथी एक घर के पास रुके, पानी लिया और 10 मिनट विश्राम किया।
घर के मालिक से बातचीत हुई और पता चला की मोरनी अभी भी 17 -18 किलोमीटर दूर है , उन्होंने कहा यहाँ से 25-30 मिनट लगेंगे क्योंकि उन्हें ये जानकारी नहीं थी हम तो साईकल से जा रहे है।
जल ही जीवन है |
फिर कुछ दूर चले तो दो अलग अलग रास्ते दिखाई दिए। एक सरल सा रास्ता था जो नीचे दरिया से होते हुए हलकी हलकी पहाड़ियों में जाके मिल रहा था और दूसरा रास्ता आगे से मुड़ रहा था जो ठीक से दिखाई भी नहीं दे रहा था। मोड़ पर रुके तो एक आदमी मिला जिससे पुछा- भैया मोरनी के लिए कौनसा रास्ता जायेगा ?
इतना कहते ही उसने हमें ऐसे देखा मानो किसी और देश से आये हो। वो हँसा और बोला की इस मोड़ से मुड़ जाओ।
उसकी हँसी को दिल पर न लेते हुई मैंने शरीर पर ले लिया,साइकिल के पैडल में सारा जोर फूंकना शुरू कर दिया और तेजी से मोड़ से मुढ़ गए , कड़ी चढ़ाई की शुरुवात हो गई।
गियर 6 से उतर कर सीधा 1 पर जाके रुका क्योंकि कुछ ही मिनट में सड़क इतनी खड़ी हो गई की पहला गियर भी ऐसा लग रहा था मानो किसी ने 100 किलो वजन पीठ पर लाद कर साइकिल का छठा गियर दाल दिया हो।
सौ सवा सौ मीटर तक साइकिल चलाई फिर उतर कर हाथ से खींचनी शुरू कर दी।
मैं आगे था और तरुण भाई पीछे से साइकिल पर आते हुए मुझ पर हँसे , लेकिन उनकी हँसी भी पचास मीटर की ही मेहमान थी उसके बाद वो भी उतर गए और हम साथ साथ चलने लगे।
गाते गुनगुनाते कुछ 300 मीटर चले और फिर चढ़ाई कुछ कम हो गई , फिर साइकिल पर बैठ गए लेकिन वो साइकिल का सुख फिर 1 -1.5 किलोमीटर तक ही था , फिर उतरे और विश्राम किया। उन पलो को कमरे में कैद किया।
कुछ सोचते हुए |
Add caption |
आस पास कुछ और लोग जो उस रास्ते से मोरनी जा रहे थे उन्हें भी ऐसा लग रहा था की हम किसी और देश से हैं और अब उस रास्ता बताने वाले पहले आदमी की हँसी बखूबी समझ आ रही थी , बिलकुल वैसी ही हंसी हमारे चेहरों पर एक दूसरे को देख कर आ रही थी।
"जब ओखली में सर दे दिया तो मूसल से की डरना"-बस एक इसी भाव के साथ साइकिल और पैदल चलने की मिश्रित प्रक्रिया चालू रही।
फिर चढ़ाई , फिर साइकिल से उतरकर पैदल चलना , फिर साइकिल पर चढ़ना और फिर कुछ दूर तक पैडल मारकर साइकिल को खींचना। ऐसा करते करते हम फिर एक मोड़ पर पहुंचे जहां से एक रास्ता मोरनी को जाता था और दूसरा पिंजौर को ,वह कुछ दुकाने थी जिनसे मैगी और चाये का सेवन किया और पता चला की अभी भी मोरनी 9 किलोमीटर आगे है।
दोपहर के 1 बजे रहे थे और मैंने मन बना लिया की 2:00 तक मोरनी पहुँच के रहेंगे। रास्ते में शरीर ने तो जवाब नहीं दिया लेकिन 1:45 पर मन जवाब दे गया और मोरनी से 6 किलोमीटर पीछे पीछे से ही वापस लौटने का मन बना लिया।
दोनों साथी सर्व सहमति से 6 किलोमीटर पीछे से ही वापस लौट गए।
अब वो रास्ता जो कांटो की तरह पैरों में चुब रहा था वो फूलों की तरह कोमल और सुन्दर लगने लगा।
जिस चढाई वाली दूरी को हमने 2.5 घंटे में पूरा किया वो 20 मिनट में तय कर ली , साइकिल हवा से बातें करने लगी , उत्तराई इतनी तीखी थी की ब्रेक लगाने पर भी साइकिल रुक नहीं रही थी , वापसी में कोई दुःख का एहसास ना था और कुल 1.5 घण्टे जैसे तैसे करके हम हॉस्टल वापस आ गए और ले आये वो यादें जो अतुलनीय थी।
प्रकृति की गोद में एक लम्हा |
वापसी में ख़ुशी का एहसास |
अधूरे सफर में भी किला फ़तेह का एहसास |
प्रकृति की गोद में बैठने का एहसास कराया मोरनी क अधूरे सफर ने। जीवन में बहुत बार हम मन चाही वस्तुओं को हांसिल नहीं कर पाते , लेकिन उनके पीछे किये गए परिश्रम से बहुत कुछ सीखने को मिलता है,
मोरनी का अधूरा सफर भी उन्ही में से एक सफर बन के रह गया जो अधूरा होने पर भी खूबसूरत और अद्भुत था ।
इन्ही सब बातो को एक दिन अपने तीसरे साथी सौरभ जी से साँझा किया , उनका झट से जवाब आया - फिर से चलें क्या ??
मैंने कहा महाराज हाथ जुड़वाँ लो।
लेकिन वो मानने वालो में से कहाँ है ? लोहे की टाँगे और हीरे का दिल है , हीरा इसलिए क्योंकि वो सबसे स्ट्रांग कार्बन पदार्थ है।
अकेले चल दिए मोरनी।
आखिर मोरनी में है क्या ?
वह क्यों जाना ?
इन सब बातो को जानने के लिए पढ़िए मेरे साइकिल गुरु सौरभ जी का ब्लॉग ?
चंडीगढ़ से मोरनी हिल्स (टिक्कर ताल) यात्रा
जल्द ही आऊंगा चप्पर चिड़ी की साइकिल यात्रा और चप्पर चिड़ी के एतिहासिक महत्त्व के साथ।
नमस्कार ।।
वाह भाई साहब वाह !
ReplyDeleteखूब लिखा है आपने
Nyc 1 bhaiya.. it inspired me to do our best n be happy with the efforts made..
ReplyDeleteBht khub , Padkar acha laga :)
ReplyDeleteKailash k darshan krne ki badi abhilasha thi vaha tak jana abhi sambhav nhi kintu aapk yatra ki sukad sukhad anubhutiyon se vaha tak jane ki iksha or prabal ho gayi h .. :)