Sunday 25 December 2016

देखो गधा पिशाब कर रहा है (Lodhi Art District)

यहाँ पेशाब करना मना है ।
देखो गधा पिशाब कर रहा है।
गधे के पूत, यहाँ मत मूत।
ये सभी बातें दिल्ली की गलियों के उन्ही सब कोनों से पढ़ने को मिलती थी जहाँ, कोई ना कोई इंसान अपने गधे होने की गवाही दे जाता था ।
मानता हूँ भाई प्रेशर बन गया होगा लेकिन अधिकतर ऐसा होता था कि जहाँ कोई गधा पिशाब कर रहा होता है, वही आस पास कोई जन प्रसाधन (सरल भाषा में शौचालय और मूत्रालय) बना होता था।
स्कूल से घर 6-7 किलोमीटर दूर था, तो रास्ते में कई गधे इंसान की रूप में दिखाई देते थे।
परिस्तिथि मानो यूँ थी कि कोई व्यक्ति अगर सड़क किनारे जा रहा हो, तो उसके फेंफड़े अमोनियम हीड्राकसीड से इतने भर जाते कि, बंद नाक भी खुल कर दम घुटने की गवाही देने लगती थी।
परेशान प्रशासन ने इसका एक उपाय खोज निकाला परंतु लोगों ने उसे फेल करते हुए देर ना लगायी,
पहले कुछ टाइल(tile) जगह जगह चिपकायी गयीं जिनपे भगवान,ईसा मसीह,मक्का और श्री सिख गुरुओं की फोटू थी लेकिन आदत से मजबूर लोग कोई ना कोई ऐसी जगह ढूंढ ही लेते थे जहाँ कोई धार्मिक चित्र वाली टाइल नहीं लगी होती थी।
फिर किसी ने एक और अच्छी सलाह प्रशासन को सुझाई जिससे पूरे शहर में खूबसूरती छाने लगी और लोगों ने भी सुधारना शुरू किया।
वो सलाह थी दीवारों पर चित्रकारी करने की ।
लोधी कॉलोनी का क्षेत्र सबसे ज्यादा खूबसूरत हो गया,
वही क्षेत्र जहां बचपन बीता, स्कूल की दसवीं तक की पढ़ाई भी वही से हुई।
पता चला तो बाइक उठा कर निकल पढ़ा सुंदरता को खोजने, लोधी रोड की गलियों में।




















सलाह एक और लाभ अनेक
1.इंसानों ने गधा बनना काम कर दिया।
2.पुरानी गलियों, इमारतों और दीवारों को नया स्वरुप मिला।
3.पर्यटन में वृद्धि हुई (मेरे जैसे कई लोग फोटू खींचने आने लगे)।
4.रोजगार बढ़ा उन्ही सब चित्रकारों,रिक्शे वालो और कैमेरामैन लोगो का जो आये दिन फोटू खींच के कुछ लिख डालते हैं।
5.अनेकों शिक्षाप्रद संदेश मिलते है जिनकी एक झलक बहुत से जीवन को प्रेरित कर जाती है ।
नोट-आपके बहुमल्य सुजाव और टिप्पड़ी की आशा करता हूँ ।

Saturday 8 October 2016

आज की दौड़ में कल की कुछ यादें।

एक समय था जब पिताजी के कंधे पर बैठ कर राम लीला देखने जाया करते थे ,
और वापसी में तलवार, धनुष-बाण या गदा में से एक वास्तु घर लाया करते थे, पैसे थोड़े होते थे लेकिन खुशियां बहुत थीं।
अब तो सभी रंग फीके पड़ गए है ।
ये नयी पीढ़ि के बच्चे कहाँ वो आंनद ले पाएंगे जो हम मिटटी में लोट पोट होकर लिया करते थे।
अब हेल्थ और हाईजीन वाले आडम्बर जो चल पढ़े है।
वरना पहले तो रोज स्कूल बस से उतरते ही रास्ते में शहतूत और जामुन के पेड़ों को जब तक ना छान लें, घर जाने का मन ही नहीं करता था।
अभी पिछले हफ्ते मंडी में 200 रुपए में बिकने वाले जामुन की कहानी सुनी थी।
60 रुपए किलो सेब, 150 का कीवी और 200 प्रति किलो जामुन।
खैर छोड़िये जनाब,कहाँ फलों में अटक गए
आज के बच्चों की बात करते है
सैनिटाइजर,नैपकिन,टिस्सु पेपर वाले बच्चों को मिटटी में खेलते ही छींक आ जाती है।
कब्बडी, खो-खो, पोषम पा, छुपन छुपाई,लंगड़ी टांग की बजाए अब एन.ऍफ़.एस,और प्ले स्टेशन के धुरंधर ज्यादा मिलते है।
हाँ, अगर किसी की रूचि हो तो हज़ारो रूपये में फीस लेने वाले लाखों कमाने वाले कोच को लोग हायर(hire) कर लेते है।
पहले साथ मिल कर खेला करते थे और तो घरों से बाहर ही कहाँ निकलते है बच्चे ?
एक दूसरे के घर जाकर बुलाने का जो चलन था उसको भी फ़ोन ने ख़तम सा कर दिया है ।
साधन कम थे फिर भी समय का अभाव नहीं लगता था और अब तो साधनों ने ही सारा समय खा लिया है।
क्या सही है क्या गलत इस बात की चर्चा हो तो संभवतः कोई निष्कर्ष ना निकले परंतु फिर भी इतना कहूंगा के पिताजी के साथ राम लीला देखने जाने में बहुत मज़ा आता था।
दुर्गा पूजा हो या गणेश पूजा, हर त्यौहार का एक अलग ही रोमांच रहता था
अब गणेश पूजा और दुर्गा पूजा के पंडालों में भी लोगो की रौनक और चमक धमक तो बड़ी है परंतु साथ ही साथ आधुनिकता के माया जाल में वो सेहजता से जीवन व्यापन करने वाला परिवार कहीं दिखाई नहीं देता। फैशन, शो-शा बाजी और एक्सक्यूज़ मी ज्यादा बढ़ गया है ।
जहां पहले लोग आरती के समय ताली बजाया करते थे अब आशीर्वाद को कैद करने के लिए फ़ोन से वीडियो बनाया करते हैं।
पहले बड़ों से मिलने पर पैर छुआ करते थे, फिर कुछ समय पहले घुटने छूने का रिवाज़ चल पढ़ा और अब आजकल तो सेल्फी लेकर काम चला लिया करते है ।
कल रात हॉस्टल की छत पर बैठे थे , ठण्डी ठण्डी हवा चल रही थी और दो दिशाओं से राम लीला की आवाज़ आ रही थी।
4 में से 1 भाईसाब जो की आयु में थोड़े बढे है उन्होंने कहा की अपने बच्चों को वो मज़े जरूर करा देना जो हमारे माता पिता ने हमें कराये थे, वो संस्कार भी पहुंचा देना जो हमें मिले थे ।
बस तो सोचा की कुछ विचारो को अपनी कलम के माध्यम से आप तक प्रस्तुत करूँ।
अपनी प्रतिक्रिया जरूर दीजियेगा ।
**जय श्री राम**

इसका उत्तर भी लोग हाय या हेल्लो से देना पसंद करते है।
फिर भी कहना चाहूंगा
**जय श्री राम**

Saturday 24 September 2016

मणिमहेश कैलाश (अंतिम भाग)

अंतिम भाग 

कहानी में अब तक (विस्तार में पढ़ने लिए यहाँ क्लिक करें )
पिछले डेढ़ दिन में कुल  400 किलोमीटर(चंडीगढ़ से भरमौर) की यात्रा, विभिन्न माध्यमो से करके, हम सभी ने आज सुबह 11:45 पर हड़सर से 14 किलोमीटर की पैदल यात्रा आरम्भ करी।
कुछ 5-10  मिनट साथ चलने के बाद हम, तीन टीमों में  बट गए। 
पहली टीम जो एक अकेले सौरभ की थी  वो सबसे आगे, उसके बाद मैं और अमन चौधरी अगली टीम के सदस्य, और अंत में तरुण भाई और भाभी जी। 
यात्रा की शुरुआत में  सौरव ने तेजी दिखाते हुए सबसे आगे चलने का फैसला किया और देखते ही देखते वो सबकी नजरो से ओझल हो गया। यात्रा के आरम्भ में तरुण भाई का हर एक किलोमीटर पर रुक कर मिलने का निर्देश भी ध्यान में ना रखते हुए सौरभ हम सभी से बहुत आगे चला गया और धन्छो पहुँच कर पता चला की, सौरभ वहां से एक घण्टा पहले ही निकल चुका है।
धन्छो से कैलाश के लिए दो रास्ते अलग होते थे , एक बिना रुकावट के सीधा  कैलाश को जाता था और दूसरा रास्ता सुंदरासी से होते हुए कैलाश को जाता था, रात सुंदरासी में बितानी थी तो हम उसी रास्ते पर बढ़ गए, लेकिन सौरभ कहाँ होगा ? ये किसी को नहीं पता।

भगवान् से प्रार्थना करते हुए की सौरभ भी सुंदरासी से होते हुए जाए, हम धन्छो  से आगे बढे।
धन्छो से ऊपर आते हुए रास्ते पर एक निगाह गयी तो बाईं ओर सीधा खड़ा पहाड़ दिखता था जिसके शिखर से एक दूसरा रास्ता मिलता था जो की सुंदरासी की ओर जाता था।
उस पहाड़ पर चढ़े, तो नीचे बहता हुआ झरना दिखाई देने  लगा और उस पर जमी बर्फ की बहुत मोटी चादर, बर्फ की चादर के नीचे से अत्याधिक वेग से बहता शीतल जल।
धन्छो और उसके सामने से अलग होता हुआ दूसरा रास्ता 

"धन्छो बना है धन और छो से , छो का अर्थ है झरना (जानकारी तरुण जी द्वारा मिली ) , और झरने के दोनों ओर हरा भरा घास से ढका पहाड़ है जो की अनन्य पशुओं के लिए भोजन तो देता ही है, साथ में धन देता है उन भेड़पालकों को जो हर साल गर्मियों में यहाँ अपनी सैकड़ो भेड़ो को लेकर आते हैं और हिमपात से पूर्व नीचे उतर जाते हैं।

भेड़ बकरियों का अन्नदाता धन्छो  
सुंदरासी जाते हुए रास्ते में हमें ऐसे ही दो भेड़ चलाने वाले बंधू गद्दी मिले, पूछने पर पता चला की, दोनों भाई थे जो अपने साथ में  1000 भेड़ और कुछ बकरियाँ लेकर चल रहे थे। उनसे भी पूछा  - क्या यहाँ से कोई पतला दुबला जवान लड़का भागता हुआ दिखाई दिया? उन्होंने ने भी मना कर दिया। लेकिन फिर भी, भोलेनाथ सब ठीक करेंगे ये भरोसा मन में रख कर हम आगे बढे।
गद्दी भाईलोग 

आगे बढ़ते-बढ़ते धूप  कम हो गयी और धीमी बौछार के साथ हम शिव की चक्की पर पहुंचे, जहां एक साधू महात्मा ने डेरा जमाया हुआ था, उनके पास कुछ समय बिताया और आज के दिन के आखिरी पड़ाव की ऒर (सुंदरासी) प्रस्थान किया।  6 बजे हम सुंदरासी 20 मिनट बाद तरुण भाई और भाभी जी आ गए। उन्होंने भी हमसे  सर्व प्रथम सौरभ का समाचार पूछा लेकिन अभी भी कुछ पता नहीं।

सुंदरासी के निकट 
सुंदरासी पहुँच कर  मैंने  इस प्रकार बादलों  को अपनी बाँहों में भरने का प्रयास किया 
किसी निःशब्द वार्ता में तल्लीन श्रीमती एवं श्री तरुण गोयल 

अप्रतिम सुख 

अपने टेंट के बाहर बैठे हम चारों उड़ते बादलों को निहार रहे थे, सौरभ दूसरे पथ से गया होगा यह तो अब निश्चित हो गया था लेकिन वो आज ही वापस आने का प्रयास करेगा इस बात का विश्वास केवल मुझे ही था, क्योंकि मैं उसके हठीले व्यवहार से परिचित था हूँ।
तभी सामने विशाल और श्वेत हिमनद (glacier) पर एक कला सा धब्बा चलता हुआ दिखाई दिया,जिसे देखते ही  मन में संदेह उत्पन्न हुआ। क्या यह सौरभ तो नहीं जो इस विशालकाय और खतरनाक बर्फ के हिमनद को पार करने का  प्रयास कर रहा है??
मैं दौड़ कर टेंट से कैमरा लाया और तरुण भाई ने ज़ूम करके देखा। वो काला शाल सौरभ का ही था,  मन ही मन सभी ने प्रार्थना करनी शुरू कर दी की सौरभ सफलतापूर्वक उस हिमनद को पार कर ले।
सौरभ उस हिमनद को पार करने में समर्थ रहा, लेकिन अभी भी हिमनद करीब 2 किलोमीटर दूर था, जिसको सौरभ ने पार किया ही था, के नीचे से उठता हुआ बादल सर्वत्र छा गया, सब कुछ सफ़ेद हो गया , खतरा तो अभी भी था लेकिन एक विश्वास भी था की ये वही सौरभ है जो उस विशाल हिमनद को अभी पार करके आया है।
सभी सौरभ की चिंता से तो मुक्त हो गए थे लेकिन क्रोधित मन सौरभ को ना जाने क्या क्या कहना चाहता था, तरुण भाई ने हमें सौरभ को ना डांटने की सलाह दी ।
जैसे ही सौरभ को हमारी झलक दिखाई दी वो इस प्रकार भागता हुआ आया, जैसे किसी खोये हुए बकरी के मेमने को उसकी माँ मिल गयी हो । उसे  दौड़ता देखते ही सारा गुस्सा शांत हो गया और एक अप्रतिम सुख का एहसास हुआ। उसको बिठाया पूरा हाल चाल पूछा, उसके कैमरे में कैलाश की वो छवि देखी जो अभी तक रहस्य ही थी। 
सौरभ का हाल चाल पूछते हुए  
सौरभ मिल गया, रात को एक साथ भोजन किया और 10 बजे सभी सो गए ।
19 जून 2016 
सुबह 5:30 बजे उठ कर हमनें 6 बजे तक अपनी शेष यात्रा शुरू कर दी।
एक किलोमीटर की पतली सी पगडण्डी को पार करते हुए हम एक बहुत बड़े पथरीले पहाड़ पर पहुंचे जिसका नाम था भैरोंघाटी, भैरोंघाटी के ऊपर से बहुत बड़ा झरना बहता है  जिस पर हम लोगों ने कुछ चित्र लिए और आगे बढ़ चले ।
विशाल पत्थरों भरा रास्ता 
पतली पगडण्डी को पार करते साथी 
भैरो घाटी 

भैरो घाटी को निहारता मैं

लेकिन विचित्र बात यह थी इतनी ऊँचाई पर भी भैरोंघाटी अनन्य प्रकार के फूलों से अपना  घिराव करती है और उनमें से अधिकाँश फूलों के नाम डॉ कमल प्रीत जी (भाभी जी ) को ज्ञात थे । अब इसमें उनकी रूचि ही समझिये वरना डॉक्टर लोगो को तो दवाई के नामों  अतिरिक्त और कुछ याद  करने का समय ही कहाँ मिलता है ??

 भैरो घाटी के ऊपर वाला हिमनद 
भैरो घाटी  को पार  करते ही हम चारों एक स्थान पर रुके लेकिन अमनदीप निरंतर अपनी गति से चला ही जा रहा था ,7  बज चुके थे और हमने आगे  कुछ कदम बढाए ही थे की तरुण भाई ने भागना शुरू कर दिया और उनके पीछे भाभी जी भी दौड़ लगाने लगी ,  मुझको तो कुछ समझ नहीं आ रहा था लेकिन सौरभ सब जानता था। थोड़ा आगे बढ़े तो पता लगा की कैलाश जिस स्थान से दिखाई  देता है , हम वहाँ पहुँच गए है।
उन दोनों को नतमस्तक देख मैं और सौरभ भी नतमस्तक हो गए।

प्रथम कैलाश दर्शन 
कैलाश पर्वत की सुंदरता देखते ही बनती थी।
करीब 8  बजे हम डल झील पहुँचे और पहुँचते ही एक अनोखी सी बात हुई,
सौरभ का मणिमहेश में पुनः स्वागत हुआ ,वहॉं के दुकानदारों  के लिए तो सौरभ किसी  स्टार से कम ना था, एक ने पुछा रात कहाँ बितायी , दुसरे ने कहाँ आप फिर से आ गए दर्शन के लिए तीसरे ने रास्ते के बारे में पुछा।
सौरभ एक अकेला यात्री होगा जिसने एक ही बार में तीनों मार्ग भलीभांति छान दिए थे।
डल झील का स्वच्छ जल और उस पर दिखते बादलों से घिरे कैलाश और आकाश का प्रतिबिंब अकथनीय ही समझो।
डल झील 
पहले उस जल में पैर डाला  तो ऐसा लगा,मानो किसी ने हज़ारो सुईयां चुभा दी हों, लेकिन फिर पिताजी का कथन याद आ गया और भोले शंकर का नाम लेके उस पवित्र जल  में बिना रुके तीन डुबकियां लगा दी।
एक बार की बात थी,जब मैं दिसम्बर के महीने में गंगा स्नान से परहेज कर रहा था तब पिताजी ने  शास्त्रों का हवाला देते हुए कहा था की ब्राह्मण अगर स्नान से परहेज़ करे तो बहुत बड़ा दोष लगता है।
मुझे और सौरभ को स्नान करता देख तरुण भाई ने भी हिम्मत जुटा ली और वो भी स्नान कर गए।



डल झील पर जमी बर्फ के टुकड़े 


सौरभ 
 मणिमहेश कैलाश 

स्नान करते ही पूजा अर्चना की और फिर सुन्दर चित्रों की खोज में हम एक ऊँचे पहाड़ पर चढ गए ,चित्र लिए और 10 बजे  हड़सर के लिए प्रस्थान आरंभ किया।
जय शिव शंकर महादेव 
वापसी में 2 जंगली कुत्तों ने हमारा सुंदरासी तक साथ दिया। पहले तो पथरीले संकरे रास्ते पर कुत्तों  के साथ सफर करने में डर लग रहा था लेकिन, वो दोनों इतने समझदार थे की प्रत्येक बाधा वाले स्थान को पहले खुद पार करते,  फ़िर हमारे पार  करने की प्रतीक्षा करते। सुंदरासी पहुँचने तक  फिर से घनघोर बादल पहाड़ों के ऊपर से पलायन करने लगा।    
सुंदरासी से आगे वापसी करते हुए 
12  बजे वापस सुंदरासी और 2 बजे हम धन्छो पहुँच गए ,फ़ोन की बैटरी दम तोड़ गयी थी साथ ही साथ धन्छो में नींबू ना मिलने के कारण मैं प्रकृति  के सौंदर्य को निहारते हुए चलता ही गया और इस तरह 4 बजे हम वापस हड़सर पहुँच गए।
यात्रा की सफलता के लिए एक दुसरे को बधाई देते हुए मैं अंदर ही अंदर कुछ भावुक सा हो गया, फिर एक जीप में हम सभी भरमौर के लिए निकले।एक टाटा सूमो में अधिकतम कितने लोग बैठ सकते है इस बात का अनुमान लगाना है तो कभी चम्बा जाइएगा। पहले तो 3 लोगों  की बैठने वाली सीट पर 5 लोगों को ठूसा गया उसके बाद कुल ड्राइवर समेत 14 लोगों  के बैठने के बाद भी ड्राइवर ने पुछा - कतूने(कितने) लोग हो गए ???
मैंने बोला भैया 14  हो गए, अब चलो भी। बड़ी मुश्किल से ड्राइवर चला ही था की 1  किलोमीटर बाद फिर ब्रेक मार दिया, एक नव विवाहित दम्पति ना जाने कितने समय से बस की प्रतीक्षा में था। उनको देखते ही एक कंड़क्टर जैसा दिखने  वाला आदमी जीप से उतरा और दोनों सवारियों को अलग बिठा कर खुद दरवाज़े पर लटक गया। पहाड़ों की समस्या  तो पहाड़ी ही समझ सकते है शहर में रहने वाले भला क्या जानें ?
5:30 बजे हम भरमौर पहुंचे जहाँ होटल भरमौर व्यू के मालिक - नितिन ठाकुर जी और उनके बड़े भाई हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। पिछले कल की  तरह आज भी खूब आदर सत्कार हुआ, भोजन किया , पूल खेला और चले गए रात को चम्बा के लिए।



चम्बा में रात एक बार फिर बावा भाई के घर रुके और अगले दिन सुबह जल्दी पठानकोट के लिए निकल पढ़े
रास्ते में बनीखेत के पास मौसम ने रुप बदला और बारिश होने लगी जो चम्बा जिले की सीमा तक ही साथ रही।
बनीखेत 

नूरपुर से  अमन और मैंने बस पकड़ी , सौरभ अपने घर और तरुण भाई  और भाभी जी ज्वाली चले गए।
शाम 6  बजे हम वापस हॉस्टल पहुँच गए।
यात्रा से सीख
1. छोटे-छोटे क़दम चलने से शारीरिक तनाव का अनुभव नहीं रहा।
2. रुक-रुक कर अलग अलग माध्यमों से यात्रा करने से यात्रा में रूचि निरंतर बनी रही।
3. पहाड़ों पर कभी भी अत्याधिक उत्सुकता ना दिखाई जाए जैसा की सौरभ ने किया और इससे सभी को सीख मिली।  
                                               *कृपया त्रुटियों को उजागर करें*
                                                                                                                                      जय  महादेव  


Monday 4 July 2016

मणिमहेश यात्रा भाग-2 (भोले की नगरी में)

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सुबह 10:50 पर इन्दपुर से जसूर की बस ली, बस का चलना शुरू हुआ और साथ में पहाड़ी रास्ते की शुरुआत भी हो गयी। छोटे छोटे रेतीले पहाड़ कुछ घास , कुछ मिट्टी , तो कुछ पेड़ों से ढके हुए।
अभी ठीक से पहाड़ तो नहीं आये थे लेकिन खड़ी चढ़ाई से हिमाचल में  प्रवेश करने का एहसास होने लगा था। जिला काँगड़ा के अनन्य स्थानों से होते हुए हम जसूर पहुंचे और फिर वहां से द्रमण के लिए बस पकड़ी ।
जसूर में खड़े  पर्यटनप्रेमी 
द्रमण भी जिला काँगड़ा में आता है, जिला काँगड़ा आबादी के अनुसार हिमाचल का सबसे बड़ा जिला माना जाता है।
द्रमण वो स्थान था जहाँ से चम्बा जिले की सीमा शुरू होते थी, एक रास्ता मण्डी से आता , दूसरा नुपुर काँगड़ा से और तीसरा रास्ता चम्बा को जाता है। 
चम्बा को जाने वाला रास्ता 

चम्बा जाने वाले रास्ते पर गाड़ियों की संख्या कुछ ज्यादा ही थी ,
चम्बा, खजियार और डलहौज़ी जैसे बहुत सारे आकर्षण के केंद्र है चम्बा जिले में जो हिमाचल पर्यटन का एक अहम हिस्सा हैं। 
5 मिनट 10  मिनट 15 मिनट 20  मिनट करते करते पूरे 45  मिनट तक तरुण भाई का इंतज़ार तो किया गया लेकिन उन 45  मिनट में भी हम पूर्णतः व्यस्त ही रहे, 
चम्बा की ओर जाते हर एक गाडी वाले ने (जो दुसरे राज्य से आ रहा था) हमसे एक ही सवाल पुछा - भाई क्या ये रास्ता चम्बा को ही जाता है?
रास्ता पता होने के बावजूद भी सभी का एक जैसा सवाल शायद इसलिए था क्योंकि पहाड़ी रास्तों में गलती की गुंजाइश कम ही होती है। 
बहुत अच्छा महसूस हो रहा था मुझे और अमनदीप को क्योंकि जिस रस्ते पर कभी गए नहीं उसकी जानकारी बाकी अनजान लोगों को दे रहे थे हम।

खैर कुछ समय बाद श्रीमती और श्री तरुण जी ने हमे गाड़ी में बिठाया और चल दिए हम चम्बा के लिए। 
खूबसूरत प्रकृति  के दर्शन शुरू होने लगे थे और कुदरत का करिश्मा देखिये की गाडी में बैठते ही चम्बा के दैवी क्षेत्र में वर्षा ने हमारा स्वागत किया।
चढ़ाई कुछ और बढ़ने लगी , मौसम साफ़ होने लगा और कुछ मिट्टी के खोखले पहाड़(anthill) दिखने लगे जैसा हॉलीवुड की मूवीज में देखा है।
उन चिंटीपहाड़ों(anthill) से ऊपर थे कुछ खूबसूरत बादल।
चींटी पहाड़

जब अभी से इतना मज़ा आ रहा है तो आगे क्या नज़ारा होगा???😇
मेरी आँखें प्रकृति को बखूबी निहार रही थी , तभी कुछ दूर एक दो जलाशय दिखाई दिए, जिनके ऊपर सफ़ेद घनघोर बादल मंडरा रहे थे ।
तरुण भाई ने बताया के ये अलग अलग डैम है ,बहुत दूर नज़रो से मुश्किल ही दीखता पोंग डैम था ।
तभी कुछ दूर चलने पर सड़क के साथ नीचे एक नदी आ रही थी जिसपे एक बहुत पास डैम दिखाई दिया -चौड़ा डैम चमेरा 1 के नाम से लोग उसे संबोधित करते थे ।
चौड़े डैम के पास 2-4 सेल्फी ली और फिर सीधा बावा जी के घर जाके रुके।
हम 5 


चमेरा 1 चौड़ा डैम 


बावा जी - एक अद्भुत शख्सियत है, तरुण भाई के कॉलेज के साथी जो की चम्बा के एन.एच.पी.सी के प्रोजेक्ट में अपनी धर्मपत्नी के साथ कार्यरत है ।
बावा जी उर्फ़ आदित्य भारद्वाज जी के जैसे स्वभाव वाला व्यक्ति शायद कभी नहीं मिला मुझे पिछले 23 साल में।
साधारण जीवनशैली, उच्च विचार और आतिथ्य भाव ऐसा की हॉस्पिटलटी के विद्यार्थियों को इनसे शिक्षा दिलानी चाहिए।
पूरे दिन अपने ऑफिस में बिजली बनाने के बाद थके हुए बावा जी ने हमारा लिए स्वादिष्ट भोजन बना कर रखा था।
पूरे गर्मजोशी से स्वागत हुआ , भोजन किया और फिर बावा जी ने हमें चम्बे के चौगान का दर्शन कराया।
चौगान माने एक बड़ा समतल मैदान जहा पर अनन्य खेलकूद और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते है , एक तरफ तो तेज बहती रावी नदी थी वही दूसरी ओर ऊँचे ऊँचे चम्बा के पहाड़, वादियों का पूरा एहसास अब हो रहा था।
चौगान के साथ जाते रोड पर हुई कई सारी फिल्मो की शूटिंग का जिक्र भी किया था बावा भाई ने।
रात हुई, सो गए, बहुत बढ़िया नींद आयी, आती भी क्यों नहीं बावाभाई ने हमें अपने बैड पर सुलाया और खुद जमीन पर गद्दा बिछा कर सोये।
ऐसे व्यक्ति को सरकार द्वारा आतिथ्यभाव के लिए पद्मविभूषण मिलना चाहिए।


तीसरा और सबसे अहम पढ़ाव-
अगले दिन सुबह जल्दी ही नहा धोके और चाय की चुस्की भर के बावा भाई के घर से भरमौर के लिए निकले हम लोग।
आज भरमौर (जो की 68 किलोमीटर दूर है चम्बा से) से आगे चढ़ाई शुरू करनी थी।
भरमौर को जाते रास्ते में एक तरफ से तेज़ हिलोरे लेती रावी नदी थी और दूसरी ओर तीखा कटा हुआ पहाड़ी रास्ता ।
इतना संकरा रास्ता था की 2 गाडी एक साथ पास भी मुश्किल से ही ले पा रही थी और तो और जब कभी यहाँ बारिश पड़ती है तो भूस्खलन(landslide)  का खतरा बना ही रहता है। हलकी हलकी मेघा तो थी लेकिन ईश्वर की कृपा भी थी और हम सीधा भरमौर के होटल भरमौर व्यू में जाके रुके ।
होटल भरमौर व्यू - एक और ऐसी जगह थी जहाँ मेहमान नवाज़ी का पूरा आनंद मिला-नितिन भाई और उनके बड़े भाई डॉ०अतुल सर (कहानी के अगले भाग के किरदार)द्वारा।
होटल भरमौर व्यू में नाश्ता करके हम लोग हडसर के लिए टैक्सी से करीब 11 बजे निकले ।
दैवी यात्रा का रास्ता 
और 11:45 बजे हमारी यात्रा का शुभ आरम्भ हुआ।
तरुण भाई नें केवल दो ही अनुदेश दिए ।
1. सभी अपनी अपनी गति से चलेंगे।
2.हर 1 किलोमीटर बाद रुक के साथी यात्रिओ के साथ मिलन करेंगे ।
ये दो बातें कहते हुए सौरभ को ये भी कहा के तू अपनी गति से चलना।
बस फिर शिव शंकर का नाम लेके यात्रा शुरू करी ।
4-5  मिनट सौरभ ने चलते चलते मुल्तानी मिट्टी का लेप अपने हाथ और मुह पर मला और फिर उसने भागना सागरु कर दिया।
हाँ जी पहाड़ी चडाई में इस तरह से भाग रहा था जैसे हिरन जंगल में मणि की तलाश में इधर उधर भागता हो।
आज सौरभ को उसकी मणि की तलाश थी।
दैवी यात्रा का शुभ आरम्भ 

मैं और अमन जो की नौसिखिये थे, धीरे धीरे तेज होने लगे और भोले बाबा के दम्पति हमारे पीछे आने लगे।
शुरू में पहले हम उच्चाई से नीचे उतरे और फिर एक विशाल नदी के साथ साथ चलते रहे ।
ऊपर बहुत ऊपर पहाड़ो पर मंडराते सफ़ेद बादल और नीचे नदी में चलता शीतल जल दोनों बहुत मनमोहक लग रहे थे ।
अंदाजे से 1 किलोमीटर बाद हम दोनों (मैं और चौधरी) रुके और तरुण भाई का इंतज़ार किया।
रास्ता बहुत लंबा था और शरीर में गर्मी बनाये रखने के लिए हमने फिर अगले बढ़ना ही ठीक समझा और 5 मिनट प्रतीक्षा के बाद फिर मंज़िल की ओर बढ़ चले।



पहले बादल थे फिर घनी धूप और चलने से आयी गर्मी से पूरी शर्ट पसीने में लत पत हो गयी थी।
मेरी सांस चढ़ने लगी थी और अमन मुझसे थोडा सा दूर उच्चाई पर चलता दिख रहा था ।
अमन के आगे चलने से मेरा हौंसला बना रहा और हमने 3 किलोमीटर की दूरी हँसते खेलते , फोटो खींचते, खिंचाते तय कर ली।
फिर एक सुन्दर सा पुल दिखाई देने लगा , पहले हम लोग नदी के दायीं ओर थे और अब हमें पुल पार करके नदी के बायीं ओर चलना था।
पुल तो क्या ही मानिए लोहे का गर्डर था जोकि दो पत्थरों पर टिका हुआ था उसके साथ ही एक आगे लकड़ी का पतला सा पुल था जिसके बीच से पानी तेज़ी से बहता जा रहा था
जितना वो पुल सुन्दर लग रहा था उतना ही वो खतरनाक भी था।
 

उस पुल से आते हुए 2 यात्रिओ से रास्ता पूछने पर पता चला की धन्छो अब पास ही था। उन्होंने कहा हमे तो 15-20 मिनट लगते है तो आप भी 30 मिनट में पहुँच ही जाओगे।
दोनों बंधू पहाड़ी थे तो उनका ऐसा कहना निंदनीय प्रतीत नहीं हुआ ।
धन्छो से पीछे पुल पर हम दोनों मित्रों ने एक दूसरे के खूब फोटु खींचे।

और फिर पुल से ऊपर बढ़ने लगे लगे तो पीछे एक अत्यंत खूबसूरत पहाड़ी दिखने लगी जो पहले बादलो से ढकी थी
बाराकंडा की पहाड़ी थी वो 5800मीटर ऊँची वर्फ से ढकी,बादलों  से घिरी जो आगे जाके पीर पंजाल की पर्वत श्रृंखला से जाके मिलती थी । अंग्रेजी में लोग इसे Barakanda Snowcone भी कहते है ।
पतला पुल और बादलों में छिपा बाराकन्डा  

उस पहाड़ी से सामने बाराकंडा की पहाड़ी धन्छो पहुँचने तक बरा बर दिखती रही ।
धन्छो पहुंचे मैं और चौधरी तो ये पता चला की 2 घंटे में तकरीबन 5 किलोमीटर की दूरी तय कर ली है।

खुद की इस उपलब्धि पर ज्यादा प्रसन्न ना होते हुए ये सोचा की सुन्दरासी में रात रुकी जाए ।
रणनीति बनाने के लिए तरुण भाई और भाभी जी आ गए थे, लेकिन सौरभ का कुछ आता पता नहीं था ।
एक दुकानदार से पता चला की वो 1 घंटे पूर्व ही धन्छो पार कर चूका है वो भी भागते हुए ।
अब मन में घबराहट होने लगी थी क्योंकि धन्छो से दो रस्ते अलग होते थे 
एक सुन्दरासी होते हुए जहा हमने रात को रुकना था और
दूसरा रास्ता जो बिना रुके सीधा कैलाश को जाता था, उस दुसरे रास्ते की हालत अधिकतर खस्ता ही रहती थी और अकेले उस रास्ते का चुनाव किसी मुसीबत को मोल लेने से कम नहीं था।
कहीं सौरभ ने वो दूसरा रास्ता ना चुन लिया हो ???
कहाँ है सौरभ???
क्या वो हमें सुन्दरासी मिलेगा???
ये सब बातें जानने के लिए पढियेगा मेरा अगला ब्लॉग।