Wednesday, 22 June 2016

प्रथम कैलाश यात्रा - मणिमहेश (भाग 1)

ज़िंदादिल आशिक़ है वो , शोख़ हसीनाओ का नहीं पर्वतों का,
करता है मन उसका प्रकृति की गोद में,बार बार बैठने को,
"अजी पैर नहीं है टायर है" ऐसा साथी हमसफ़र कहते थे।
लेकिन मैं भी हठीला हूँ ,
बिना देखे अगर कुछ सोच भी लूँ,
तो भी मुश्किल ही विश्वास करूँ ।
इसलिए भाईसाब के साथ पर्यटन का फैसला किया ।
पर्यटन तो क्या कहें यात्रा एक अच्छा और उपयुक्त शब्द रहेगा,
क्योंकि जिस स्थान पर हमें पहुंचना था वो किसी तीरथ या धाम से कम नहीं ।
नाम है मणिमहेश , कुछ लोग चम्बा कैलाश से भी इसको संबोधित करते हैं।
चम्बा कैलाश - हिमाचल के कई कैलाशों में से एक प्रमुख कैलाश है , जो की जिला चम्बा में स्थित है |
कैलाश का मतलब  पर्वत श्रृंखला की वो उच्चतम चोटी या शिखर जिसे हम लोग महादेव भगवान् शिव के रूप में मानते है।
शब्दकोष के शब्द , कंठ का स्वर , मस्तिष्क के विचार , शरीर में चलती श्वास  और इस माटी के पुतले में फूंके गए प्राण ,सब उसी की तो देन है ।
चम्बा कैलाश के लिए पर्यटन तो चंडीगढ़ से ही शुरू हुआ किंतु दैवी यात्रा चम्बा के भरमौर नामक स्थान से शुरू हुई।
चंडीगढ़ से चम्बा से भरमौर का सफ़र भी कुछ कम रोचक ना था ।
17 जून शाम 6:30 की बस की टिकट करायी थी चंडीगढ़ से चम्बा के लिए ।
लेकिन अकस्मात ही तरुणभाई के समय सारिणी में परिवर्तन के चलते 16 जून को निकलने का फैसला किया ।
पहली मंज़िल थी चम्बा अब वो बदल के इन्दपुर हो गयी थी,
इन्दपुर सौरव जी के गाँव का नाम है और अब हम सुबह कुछ देर के लिए सौरव के घर जाकर यात्रा की सफलता के लिए,  माता पिता का आशीर्वाद लेते हुये आगे चम्बा के लिए प्रस्थान करने वाले थे ।
हम मतलब - मैं , सौरव (250किलोमीटर साइकिल से घर जाने वाले) और चौधरी अमनदीप सिंह।
तीन लोग और यात्रा के अहम् साथियो से मिलने से पहले 3 पड़ाव।
अहम् साथी - वो दंपति जिनका मिलना सर्व प्रथम भोलेनाथ ने  मणिमहेश में ही कराया था ।
दंपति - तरुण जी और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती डॉ कमल प्रीत जी,एक बार यात्रा के दौरान दोनों मणिमहेश में मिले , भगवान् शिव ने ऐसा संजोग बनाया की जन्म जन्मान्तर के लिए एक दुसरे के हो गए ।
हाँ , तो हम तीनो साथी  रात 11:30 हॉस्टल से निकले ,
पहले कैब वाले को रास्ता समझाने में माथा पच्ची करी।
फिर 43 बस स्टैंड पहुँच कर जो बस पता चली वो 12:40 पर चलने वाली थी ।



पूरा एक घण्टा शेष था , और हम 12:40 वाली एक टूटी फूटी सी बस में चढ़े।
सरकारी बस थी लेकिन हालत बिलकुल खस्ता थी ,ऐसी बस या तो बचपन में पुरानी फिल्मो में देखि थी या फिर पाकिस्तानी सीरियल या फिल्मों में , इस प्रकार की बस भारत में अभी भी चलती है ये उस रात पता लगा।
बस में आगे वाली सीटें जो कम हिलती थी उसपे अपना बैग रख कर कुछ देर बाहर तफरी मारी ।
फिर 12:15 बस में आके बैठे तो बाहर से एक आदमी आया जो पूरी तरफ नशे में धुत्त दिखाई देता था ।
उसने आते ही बस के बोनट पर पानी का ग्लास देकर मारा, पर किसी ने कुछ ना कहा , क्योंकि उस आदमी ने शराब पी हुई थी ।
इतने में मैं टिकट ले आया था , वो आदमी बस से उतरा,
फिर वापस आया , फिर ग्लास में पानी भरा,पिया , फिर बोंनाट पर ग्लास फेंख के मारा |
अब मन में एक डर हावी होने लगा , वो डर था की कहीं ये ड्राईवर तो नहीं ।
12:35 पर एक काली दाड़ी मूछ वाला भयानक सा , कमजोर सा दिखने वाला आदमी ड्राईवर की सीट पर आके बैठ गया और ये वही गिलास वाला आदमी था, जो अब हमें यमदूत से कुछ कम प्रतीत नहीं हो रहा ।
अब हम सभी सवारियों ने अपने अपने भगवान् को याद किया की बस ठीक से चल जाए और कोई दुर्घटना ना हो



मैंने भी मन ही मन भगवान् भोलेनाथ को याद करते हुए कहा
ये कैसी परीक्षा ले रहे हो प्रभु ।
10-15 मिनट बाद ही मैं  तो निश्चिन्त होकर सो गया ।
बीच बीच में आँख खुल जाती लेकिन डर से बचने के लिए मैंने सोये रहना ही ठीक समझा ।
3:30 बजे तेज बारिश पड़ने लगी और आधी बंद खिड़की से आती बारिश की बूंदों से मेरी आँख खुली ।
तो देखा की ड्राईवर के सामने वाले शीशे का वाइपर नहीं चल रहा था ।
बारिश , खराब वाइपर ,खटारा बस , शराबी ड्राईवर सब कुछ आज ही होना था, लेकिन बड़े बुजुर्ग कहते थे की किसी भी शुभ काम की शुरुवात में अगर बारिश हो जाए तो मानो भगवान् भी प्रसन्न हो गए ।
अब बस के शीशे में धुन्ध की परत और तेज़ आती बारिश की बूंदों से सामने से आते वाहन भी ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था ।


जैसे तैसे करके बस चल रही थी वही गनीमत की बात थी ।
बस का ड्राईवर बस को भगाते भगाते 2 नंबर सीट पर बैठे एक सवारी को बता रहा था की उसके द्वारा, एक आदमी की बस दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी है और इसके चलते उसे आधी तनख्वाह मिलती है ये सब बातें सुनकर तो नींद उड़नि ही थी ।
फिर होशियारपुर से आगे किसी अनजान जगह पर बस एक बार फिर रुकी ।
एक व्यक्ति जो ना तो ड्राईवर था , ना ही कंडक्टर था लेकिन फिर भी बस से उतरकर, बस का शीश साफ़ करने लगा था,
उसने टिकट भी ली थी लेकिन शीशा इतना शिद्दत से साफ़ कर रहा था क्योंकि उससे अपने प्राणों की खूब चिंता थी।
और तो और वो बस से उतरकर 2 चाय लेके आया , एक स्वयं के लिए और दूसरी 'यम दूत के मोसेरे भतीजे' ड्राईवर के लिए।
ड्राईवर ने चुस्की भरी और बस पठानकोट के लिए रवाना हो गयी।
ड्राईवर ने फिर प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए अपने चारो हाथ बस चलाने में खपा दिए ।
एक हाथ में चाय थी , दुसरे में स्टीयरिंग , तीसरे हाथ में गियर और चौथे से जनाब बारिश से भीगते शीशे को साफ़ कर रहे थे।
और जब किसी हाथ कोे फुरसत मिलती तो वो अपनी घनघोर जटाए (बाल और दाढ़ी) को कुरेदता था , सोना छिपा था शायद।


मीरथल पर बस रुकवा कर हम लोग उतरे और रोड पार करते ही एक बड़ा सा छावनी क्षेत्र दिखाई दिया जिसके साथ रेलवे लाइन जा रही थी।
मीरथल में छावनी क्षेत्र की शुरुवात 
छावनी क्षेत्र में घुसने से पूर्व ही एक फौजी ने मुझे अपना फ़ोन जेब में ही रखने का निर्देश दिया 
सुबह के 5:30 बज रहे थे लेकिन उस स्थान की हलचल देखते ही बनती थी
एक तरफ कुछ फौजी ड्रिल कर रहे थे, तो दूसरी ओर कुछ फौजी छोटे छोटे खाकी निक्करो में अपने रोज के कामो को अंजाम दे रहे थे, तभी एक तीखी सी आवाज आई , परेड शुरू हुई और साथ में आर्मी बैण्ड शुरू हो गया । भिन्न भिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों से आकाश गूँज उठा ।
तभी सौरभ के पिताजी हमें लेने आये । इंदौरा के इन्दपुर में एक खूबसूरत सा सफ़ेद रंग का घर जिसके पीछे फलों का बाग़ था और आँगन के आगे सब्जियों और फूलों की क्यारियां थी।

स्वादिष्ट आम का पेड़ और खुभसूरत फूल


सौरभ के घर माता पिता और दादी जी द्वारा खूब आदर सत्कार प्राप्त हुआ।
पहले दिनचर्या पूर्ण कर, अल्पाहार किया ,आम और संतरे के बाग़ देखे और सो गए।  करीब 2 घंटे सोने के बाद हम 10 बजे घर के बाहर  प्रतीक्षा में खड़े हो गए। 
एम.डी.आर 42 पर 50 मिनट की प्रतीक्षा के बाद जसूर के लिए हमे बस मिली। 

कहानी के अगले भाग के कुछ चित्र 
अंतिम पड़ाव पर बढ़ते कदम 



प्रकर्ति की गोद में बैठे हम 




मणिमहेश कैलाश दर्शन 

Tuesday, 14 June 2016

मोरनी - एक अधूरा सफर

चलो कहीं और घूम कर आते है , लेकिन इस बार कहीं आस पास चलेंगे - मैंने तरुण जी से नाश्ता करने के बाद कहा।

सुबह के साढ़े 8 बज  रहे थे , और बातों बातों में मोरनी जाने का मन बना लिया।
अभी आनंदपुर से आये हुए ठीक से  3 दिन भी नहीं हुई थे , शरीर में कहीं कहीं थोड़ा दर्द भी था लेकिन दिल पक्का था।  क्योंकि वो 'बस के द्वारा' की गई वापसी किसी नाकामी से कम भी तो नहीं लग रही थी।
शरीर को मज़बूत बनाने के लिए दिल को पहले ही मजबूत कर लिया था, जिससे कभी बस से आने पर मजबूर ना होना पड़े। जब गए साइकिल से थे तो आएंगे भी वापस साइकिल से।  आपको ये सब बातें समझने में दिक्कत हो रही होगी क्योंकि आपने शायद श्री आनंदपुर साहिब यात्रा न पढ़ी हो।

 फ़ोन में मोरनी का सबसे छोटे रस्ते वाला मैप डाउनलोड किया , दाना पानी  लिया और 10 बजे हम दोनों साथी अपनी अपनी साइकलों पर मोरनी के लिए चल दिए। सेक्टर 26 , चण्डीगढ़  से पंचकूला से होते हुए , हिमालयन एक्सप्रेसवे पर पहुँचते - पहुँचते शरीर थोड़ा बहुत खुल गया था तो हमने गति तेज कर ली।
खुला हुआ चौड़ा रास्ता , तेजी से हिमाचल की ओर अग्रसर होते वाहन अधिक समय तक  हमारा साथ नहीं दे पाये, और हमें  एक्सप्रेसवे से मोरनी के लिए मुड़ना पढ़ा।
पहले कुछ दूर तक भगवानपुर नामक एक छोटा सा गॉंव साथ चला।
फिर सड़क के दोनों तरफ़ बड़े बड़े क्रेसर दिखाई देने लगे , क्रेसर और ट्रकों को जल्द ही  पीछे छोड़ते हुए हम एक ऐसे  रास्ते पर पहुँच गए जिसपर गाडिओं और बाकी वाहनों का आवागमन काफी कम था।
रास्ते का पहला पुल 
खुला मनमोहक रास्ता 
एक तरफ छोटे छोटे पहाड़ , तो दूसरी ओर  एक दरिया में पतली सी पानी की धार दिखाई दे रही थी,वास्तव में वो दरिया भू खनन से प्रभावित जमीन का कुछ हिस्सा था।
उस सूखे दरीया से कुछ दूर पहाड़ दिखने लगे थे और सर्दियों के सूरज ने हमे ऊपर से  घेर लिया था।

करीब 3-4 किलोमीटर तक ये मनमोहक खुला रास्ता साथ रहा फिर एक छोटा सा गाँव आया और वह से पतला रास्ता शुरू हो गया।
अब दोनों तरफ हरी भरी फसल से लहराते खेत थे और बहुत मामूली सी चढाई शुरू हो गई थी। थकान का एहसास शरीर को होने लगा था तभी हमे दोनों साथी  एक घर के पास रुके, पानी लिया और 10  मिनट विश्राम किया।
घर के मालिक से बातचीत हुई और पता चला  की मोरनी  अभी भी 17 -18   किलोमीटर दूर है , उन्होंने कहा यहाँ से 25-30 मिनट लगेंगे क्योंकि उन्हें ये जानकारी नहीं थी हम तो साईकल से जा रहे है।
जल ही जीवन है 

फिर कुछ  दूर चले तो दो अलग अलग रास्ते दिखाई दिए।  एक सरल सा रास्ता  था जो नीचे दरिया से होते हुए हलकी हलकी पहाड़ियों में जाके मिल रहा था और दूसरा रास्ता आगे से मुड़ रहा था जो ठीक से दिखाई भी नहीं दे रहा था। मोड़ पर रुके तो एक आदमी मिला जिससे पुछा- भैया मोरनी के लिए कौनसा रास्ता  जायेगा ?
इतना कहते ही उसने हमें ऐसे देखा मानो किसी और देश  से आये हो। वो हँसा और बोला की इस मोड़ से मुड़ जाओ।
उसकी हँसी  को दिल पर न  लेते हुई मैंने  शरीर पर ले लिया,साइकिल के पैडल में सारा जोर  फूंकना शुरू कर  दिया  और तेजी से मोड़  से मुढ़ गए , कड़ी चढ़ाई की शुरुवात हो गई।
गियर 6 से उतर कर सीधा 1 पर जाके रुका क्योंकि कुछ ही मिनट में सड़क इतनी खड़ी हो गई की पहला गियर भी ऐसा लग रहा था मानो किसी ने 100 किलो वजन पीठ पर लाद कर साइकिल का छठा गियर दाल दिया हो।
सौ सवा सौ मीटर तक साइकिल चलाई फिर उतर कर हाथ से खींचनी शुरू कर दी।
मैं आगे था और तरुण भाई पीछे से साइकिल पर आते हुए मुझ पर हँसे , लेकिन उनकी हँसी भी पचास मीटर की ही मेहमान थी उसके बाद वो भी उतर गए और हम साथ साथ चलने लगे।
गाते गुनगुनाते कुछ 300 मीटर चले और फिर चढ़ाई कुछ कम हो गई , फिर साइकिल पर बैठ गए लेकिन वो साइकिल का सुख फिर 1 -1.5  किलोमीटर तक ही था , फिर उतरे और विश्राम किया। उन पलो को कमरे में कैद किया।
कुछ सोचते हुए 

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आस पास कुछ और लोग जो  उस रास्ते से मोरनी जा रहे थे उन्हें भी ऐसा लग रहा था की हम किसी और देश से हैं और अब उस रास्ता बताने वाले पहले आदमी की हँसी बखूबी समझ आ रही  थी , बिलकुल वैसी ही हंसी हमारे चेहरों पर एक दूसरे  को देख कर आ रही थी।
"जब ओखली  में सर दे दिया तो मूसल से की डरना"-बस एक इसी भाव के साथ साइकिल और पैदल चलने की मिश्रित प्रक्रिया चालू रही।
 
फिर चढ़ाई , फिर साइकिल से उतरकर पैदल चलना , फिर साइकिल पर चढ़ना और फिर  कुछ दूर तक पैडल मारकर साइकिल  को खींचना। ऐसा करते करते हम फिर एक मोड़ पर पहुंचे जहां से एक रास्ता मोरनी को जाता था और दूसरा पिंजौर को ,वह कुछ दुकाने थी जिनसे  मैगी और चाये का सेवन किया और पता चला की अभी भी मोरनी 9  किलोमीटर आगे है। 


दोपहर के 1 बजे  रहे थे और मैंने मन बना लिया की 2:00  तक मोरनी पहुँच के रहेंगे। रास्ते में शरीर ने तो  जवाब नहीं दिया लेकिन 1:45  पर मन जवाब  दे गया और मोरनी से 6 किलोमीटर पीछे पीछे से ही वापस लौटने का मन बना लिया।
दोनों साथी सर्व सहमति से  6 किलोमीटर पीछे से ही वापस लौट गए।
अब वो रास्ता जो कांटो की तरह पैरों में चुब  रहा था वो फूलों की तरह कोमल और सुन्दर लगने लगा।
जिस चढाई वाली  दूरी को हमने 2.5  घंटे में पूरा किया  वो 20 मिनट में तय कर ली , साइकिल हवा से बातें करने लगी , उत्तराई इतनी तीखी थी की ब्रेक लगाने पर भी साइकिल रुक नहीं रही थी , वापसी में कोई दुःख का एहसास ना था और कुल 1.5 घण्टे जैसे तैसे करके हम हॉस्टल वापस  आ गए और ले आये वो यादें जो  अतुलनीय थी।
प्रकृति की गोद में एक लम्हा 

वापसी में ख़ुशी का एहसास  

अधूरे सफर में भी किला फ़तेह का एहसास 

प्रकृति की गोद में बैठने का एहसास कराया मोरनी क अधूरे सफर ने।  जीवन में बहुत बार हम मन चाही वस्तुओं को हांसिल नहीं कर पाते , लेकिन उनके पीछे किये गए परिश्रम से बहुत कुछ सीखने को मिलता है,
मोरनी  का अधूरा सफर भी उन्ही में से एक सफर बन के रह गया जो अधूरा होने पर भी खूबसूरत और अद्भुत था ।
इन्ही सब बातो को एक दिन अपने तीसरे साथी सौरभ जी से साँझा किया , उनका झट से जवाब आया - फिर से चलें क्या ??
मैंने कहा महाराज हाथ जुड़वाँ लो।

लेकिन वो मानने वालो में से  कहाँ है ? लोहे की टाँगे और हीरे का दिल है , हीरा इसलिए क्योंकि वो सबसे स्ट्रांग कार्बन पदार्थ  है।
अकेले चल दिए मोरनी।
आखिर मोरनी में है क्या ?
वह क्यों जाना ?
इन सब बातो को जानने के लिए पढ़िए मेरे साइकिल गुरु सौरभ जी का ब्लॉग ?
चंडीगढ़ से मोरनी हिल्स (टिक्कर ताल) यात्रा


जल्द ही आऊंगा चप्पर चिड़ी की साइकिल यात्रा और चप्पर चिड़ी के एतिहासिक महत्त्व के साथ।

नमस्कार ।।