अंतिम भाग
कहानी में अब तक (विस्तार में पढ़ने लिए यहाँ क्लिक करें )
पिछले डेढ़ दिन में कुल 400 किलोमीटर(चंडीगढ़ से भरमौर) की यात्रा, विभिन्न माध्यमो से करके, हम सभी ने आज सुबह 11:45 पर हड़सर से 14 किलोमीटर की पैदल यात्रा आरम्भ करी।
कुछ 5-10 मिनट साथ चलने के बाद हम, तीन टीमों में बट गए।
पहली टीम जो एक अकेले सौरभ की थी वो सबसे आगे, उसके बाद मैं और अमन चौधरी अगली टीम के सदस्य, और अंत में तरुण भाई और भाभी जी।
यात्रा की शुरुआत में सौरव ने तेजी दिखाते हुए सबसे आगे चलने का फैसला किया और देखते ही देखते वो सबकी नजरो से ओझल हो गया। यात्रा के आरम्भ में तरुण भाई का हर एक किलोमीटर पर रुक कर मिलने का निर्देश भी ध्यान में ना रखते हुए सौरभ हम सभी से बहुत आगे चला गया और धन्छो पहुँच कर पता चला की, सौरभ वहां से एक घण्टा पहले ही निकल चुका है।
धन्छो से कैलाश के लिए दो रास्ते अलग होते थे , एक बिना रुकावट के सीधा कैलाश को जाता था और दूसरा रास्ता सुंदरासी से होते हुए कैलाश को जाता था, रात सुंदरासी में बितानी थी तो हम उसी रास्ते पर बढ़ गए, लेकिन सौरभ कहाँ होगा ? ये किसी को नहीं पता।
भगवान् से प्रार्थना करते हुए की सौरभ भी सुंदरासी से होते हुए जाए, हम धन्छो से आगे बढे।
धन्छो से ऊपर आते हुए रास्ते पर एक निगाह गयी तो बाईं ओर सीधा खड़ा पहाड़ दिखता था जिसके शिखर से एक दूसरा रास्ता मिलता था जो की सुंदरासी की ओर जाता था।
"धन्छो बना है धन और छो से , छो का अर्थ है झरना (जानकारी तरुण जी द्वारा मिली ) , और झरने के दोनों ओर हरा भरा घास से ढका पहाड़ है जो की अनन्य पशुओं के लिए भोजन तो देता ही है, साथ में धन देता है उन भेड़पालकों को जो हर साल गर्मियों में यहाँ अपनी सैकड़ो भेड़ो को लेकर आते हैं और हिमपात से पूर्व नीचे उतर जाते हैं।
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भेड़ बकरियों का अन्नदाता धन्छो |
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गद्दी भाईलोग |
आगे बढ़ते-बढ़ते धूप कम हो गयी और धीमी बौछार के साथ हम शिव की चक्की पर पहुंचे, जहां एक साधू महात्मा ने डेरा जमाया हुआ था, उनके पास कुछ समय बिताया और आज के दिन के आखिरी पड़ाव की ऒर (सुंदरासी) प्रस्थान किया। 6 बजे हम सुंदरासी 20 मिनट बाद तरुण भाई और भाभी जी आ गए। उन्होंने भी हमसे सर्व प्रथम सौरभ का समाचार पूछा लेकिन अभी भी कुछ पता नहीं।
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सुंदरासी के निकट |
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सुंदरासी पहुँच कर मैंने इस प्रकार बादलों को अपनी बाँहों में भरने का प्रयास किया |
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किसी निःशब्द वार्ता में तल्लीन श्रीमती एवं श्री तरुण गोयल |
अप्रतिम सुख
अपने टेंट के बाहर बैठे हम चारों उड़ते बादलों को निहार रहे थे, सौरभ दूसरे पथ से गया होगा यह तो अब निश्चित हो गया था लेकिन वो आज ही वापस आने का प्रयास करेगा इस बात का विश्वास केवल मुझे ही था, क्योंकि मैं उसके हठीले व्यवहार से परिचिततभी सामने विशाल और श्वेत हिमनद (glacier) पर एक कला सा धब्बा चलता हुआ दिखाई दिया,जिसे देखते ही मन में संदेह उत्पन्न हुआ। क्या यह सौरभ तो नहीं जो इस विशालकाय और खतरनाक बर्फ के हिमनद को पार करने का प्रयास कर रहा है??
मैं दौड़ कर टेंट से कैमरा लाया और तरुण भाई ने ज़ूम करके देखा। वो काला शाल सौरभ का ही था, मन ही मन सभी ने प्रार्थना करनी शुरू कर दी की सौरभ सफलतापूर्वक उस हिमनद को पार कर ले।
सौरभ उस हिमनद को पार करने में समर्थ रहा, लेकिन अभी भी हिमनद करीब 2 किलोमीटर दूर था, जिसको सौरभ ने पार किया ही था, के नीचे से उठता हुआ बादल सर्वत्र छा गया, सब कुछ सफ़ेद हो गया , खतरा तो अभी भी था लेकिन एक विश्वास भी था की ये वही सौरभ है जो उस विशाल हिमनद को अभी पार करके आया है।
सभी सौरभ की चिंता से तो मुक्त हो गए थे लेकिन क्रोधित मन सौरभ को ना जाने क्या क्या कहना चाहता था, तरुण भाई ने हमें सौरभ को ना डांटने की सलाह दी ।
जैसे ही सौरभ को हमारी झलक दिखाई दी वो इस प्रकार भागता हुआ आया, जैसे किसी खोये हुए बकरी के मेमने को उसकी माँ मिल गयी हो । उसे दौड़ता देखते ही सारा गुस्सा शांत हो गया और एक अप्रतिम सुख का एहसास हुआ। उसको बिठाया पूरा हाल चाल पूछा, उसके कैमरे में कैलाश की वो छवि देखी जो अभी तक रहस्य ही थी।
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सौरभ का हाल चाल पूछते हुए |
सौरभ मिल गया, रात को एक साथ भोजन किया और 10 बजे सभी सो गए ।
19 जून 2016
सुबह 5:30 बजे उठ कर हमनें 6 बजे तक अपनी शेष यात्रा शुरू कर दी।
एक किलोमीटर की पतली सी पगडण्डी को पार करते हुए हम एक बहुत बड़े पथरीले पहाड़ पर पहुंचे जिसका नाम था भैरोंघाटी, भैरोंघाटी के ऊपर से बहुत बड़ा झरना बहता है जिस पर हम लोगों ने कुछ चित्र लिए और आगे बढ़ चले ।
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विशाल पत्थरों भरा रास्ता |
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पतली पगडण्डी को पार करते साथी |
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भैरो घाटी |
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भैरो घाटी को निहारता मैं |
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भैरो घाटी के ऊपर वाला हिमनद |
उन दोनों को नतमस्तक देख मैं और सौरभ भी नतमस्तक हो गए।
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प्रथम कैलाश दर्शन |
करीब 8 बजे हम डल झील पहुँचे और पहुँचते ही एक अनोखी सी बात हुई,
सौरभ का मणिमहेश में पुनः स्वागत हुआ ,वहॉं के दुकानदारों के लिए तो सौरभ किसी स्टार से कम ना था, एक ने पुछा रात कहाँ बितायी , दुसरे ने कहाँ आप फिर से आ गए दर्शन के लिए तीसरे ने रास्ते के बारे में पुछा।
सौरभ एक अकेला यात्री होगा जिसने एक ही बार में तीनों मार्ग भलीभांति छान दिए थे।
डल झील का स्वच्छ जल और उस पर दिखते बादलों से घिरे कैलाश और आकाश का प्रतिबिंब अकथनीय ही समझो।
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डल झील |
एक बार की बात थी,जब मैं दिसम्बर के महीने में गंगा स्नान से परहेज कर रहा था तब पिताजी ने शास्त्रों का हवाला देते हुए कहा था की ब्राह्मण अगर स्नान से परहेज़ करे तो बहुत बड़ा दोष लगता है।
मुझे और सौरभ को स्नान करता देख तरुण भाई ने भी हिम्मत जुटा ली और वो भी स्नान कर गए।
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डल झील पर जमी बर्फ के टुकड़े |
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सौरभ |
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मणिमहेश कैलाश |
स्नान करते ही पूजा अर्चना की और फिर सुन्दर चित्रों की खोज में हम एक ऊँचे पहाड़ पर चढ गए ,चित्र लिए और 10 बजे हड़सर के लिए प्रस्थान आरंभ किया।
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जय शिव शंकर महादेव |
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सुंदरासी से आगे वापसी करते हुए |
यात्रा की सफलता के लिए एक दुसरे को बधाई देते हुए मैं अंदर ही अंदर कुछ भावुक सा हो गया, फिर एक जीप में हम सभी भरमौर के लिए निकले।एक टाटा सूमो में अधिकतम कितने लोग बैठ सकते है इस बात का अनुमान लगाना है तो कभी चम्बा जाइएगा। पहले तो 3 लोगों की बैठने वाली सीट पर 5 लोगों को ठूसा गया उसके बाद कुल ड्राइवर समेत 14 लोगों के बैठने के बाद भी ड्राइवर ने पुछा - कतूने(कितने) लोग हो गए ???
मैंने बोला भैया 14 हो गए, अब चलो भी। बड़ी मुश्किल से ड्राइवर चला ही था की 1 किलोमीटर बाद फिर ब्रेक मार दिया, एक नव विवाहित दम्पति ना जाने कितने समय से बस की प्रतीक्षा में था। उनको देखते ही एक कंड़क्टर जैसा दिखने वाला आदमी जीप से उतरा और दोनों सवारियों को अलग बिठा कर खुद दरवाज़े पर लटक गया। पहाड़ों की समस्या तो पहाड़ी ही समझ सकते है शहर में रहने वाले भला क्या जानें ?
5:30 बजे हम भरमौर पहुंचे जहाँ होटल भरमौर व्यू के मालिक - नितिन ठाकुर जी और उनके बड़े भाई हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। पिछले कल की तरह आज भी खूब आदर सत्कार हुआ, भोजन किया , पूल खेला और चले गए रात को चम्बा के लिए।
चम्बा में रात एक बार फिर बावा भाई के घर रुके और अगले दिन सुबह जल्दी पठानकोट के लिए निकल पढ़े
रास्ते में बनीखेत के पास मौसम ने रुप बदला और बारिश होने लगी जो चम्बा जिले की सीमा तक ही साथ रही।
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बनीखेत |
नूरपुर से अमन और मैंने बस पकड़ी , सौरभ अपने घर और तरुण भाई और भाभी जी ज्वाली चले गए।
शाम 6 बजे हम वापस हॉस्टल पहुँच गए।
यात्रा से सीख
1. छोटे-छोटे क़दम चलने से शारीरिक तनाव का अनुभव नहीं रहा।
2. रुक-रुक कर अलग अलग माध्यमों से यात्रा करने से यात्रा में रूचि निरंतर बनी रही।
3. पहाड़ों पर कभी भी अत्याधिक उत्सुकता ना दिखाई जाए जैसा की सौरभ ने किया और इससे सभी को सीख मिली।
*कृपया त्रुटियों को उजागर करें*
जय महादेव